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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 339 अथ देशैकत्वादेकत्वम् / नन देशस्यापि स्व-परदृष्टस्यानन्तरोक्तन्यायाद नैकता युक्ता / तस्माद् ग्राहकाकारवत् प्रतिपुरुषमुद्भासमानं नीलादिकमपि भिन्नमेव / तच्चैककालोपलम्भाद् ग्राहक / वत् स्वप्रकाशम् / अथ ग्राहकाकारश्चिद्रूपत्वाद् वेदको नीलाकारस्तु जडत्वाद् ग्राह्यः / अत्रोच्यतेकिमिदं बोधस्य चिद्रपत्वम? यद्यपरोक्ष स्वरूपं, नीलादेरपि तहि तदस्तीति न जडता। प्रथ नाला मन्यस्माद् भवतीति ग्राह्यम् / ननु बोधस्यापि स्वस्वरूपमिन्द्रियादेर्भवतीति ग्राह्य स्यात् / अथ यद् इन्द्रियादिकार्य न तद् वेद्यम् , नीलादिकमपि तहि नयनादिकार्यमस्तु नातु ग्राह्यम् / / ___ अथ बोधो बोधस्वरूपतया नित्यो नीलादिकस्तु प्रकाश्यरूपतयाऽनित्य इति ग्राह्यः / तदप्यसन, स्तम्भादेर्नयनादिबलादुदेति रूपमपरोक्षत्वम् , तदनित्यः स्तम्भादिर्भवतु, ग्राह्यस्तु कथम् ? न हि यद् यस्मादुत्पद्यते तत्तस्य वेद्यम् , अतिप्रसंगात् / तस्मादपरोक्षस्वरूपाः स्तम्भादयः स्वप्रकाशाः बोधस्तु नित्योऽनित्यो वा तत्काले केवलमुद्भाति, न तु वेदकः, द्वयोरपि परस्परं ग्राह्य-ग्राहकतापत्तेः / ___अथ नीलोन्मुखत्वाद् बोधो ग्राहकः / किमिदं तदुन्मुखत्वं नाम बोधस्य ? यदि नीलकाले सत्ता सा नीलस्यापि तत्काले समस्तीति नीलमपि बोधस्य वेदकं स्यात् / अथान्यदुन्मुखत्वं तत् , तहि स्वलिये अगर सन्तान भेद को स्वतः यानी अपने स्वरूप की भिन्नता से प्रयुक्त ही मान लेंगे तो सुखादिभेद को सन्तानभेद प्रयुक्त मानने की जरूर नहीं रहेगी, वह भी स्वतः ही यानी स्वरूपभेद से ही माना जायेगा। यदि स्वरूपभेद से भेद नहीं मानेंगे तो कहीं भी भेदसिद्धि न हो सकेगी। यह ठीक नहीं है कि अन्य दो वस्तु के भेद से अन्यत्र दो वस्तु का भेद माना जाय, क्योंकि यहाँ ऐसा अतिप्रसंग होगा कि घट-पट के भेद से शकट-लकूट का भेद होने लगेगा। उपरांत, स्वदर्शन में और परदर्शन में भासमान नीलादि भी प्रतिभासभेद से अनायास भिन्न हो जायेंगे तो स्वदृष्ट-परदृष्ट नीलादि में ऐक्यसिद्धि दूर है / [स्व-पर दृष्ट नीलादि में ऐक्य की असिद्धि यदि, अपने को जहाँ नीलादि दिखता है वहाँ ही दूसरे को भी दिखता है इस प्रकार दोनों का देश एक ही होने से स्वदृष्ट परदृष्ट नीलादि में एकत्व सिद्ध किया जाय तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि पूर्वोक्तरीति से स्वदृष्ट देश और परदृष्ट देश का प्रतिभास भिन्न भिन्न होने से देशभेद ही सिद्ध होता है, तो देश की एकता मानना अयुक्त है / [ अथवा सदृशदर्शन से ही वहाँ देश-ऐक्य की बुद्धि होती है, वास्तव में वहाँ देश-ऐक्य असिद्ध है ] इस से यही फलित होता है कि भिन्न भिन्न व्यक्तिओं का ग्राहक आकार यानी विज्ञान जैसे भिन्न भिन्न होता है वैसे ही ग्राह्य नीलादि भी भिन्न भिन्न ही है और यह नीलादि भी विज्ञानवत् स्वप्रकाश ही है क्योंकि विज्ञान और नीलादि का एक ही काल में उपलम्भ होता है। [नीलाकार में प्राह्यता की अनुपपत्ति ] यदि ग्राहकाकार विज्ञान चित्स्वरूप होने से उसको वेदक माना जाय और नीलाकार की ग्राह्यता जडताप्रयुक्त मानी जाय तो यहाँ प्रश्न है कि विज्ञान चि स्वरूप हैं' इस का क्या मतलब ? 'अपना स्वरूप अपरोक्ष होना यह चित्स्वरूपता' मानेंगे तो नीलादि का भी स्वरूप अपरोक्ष ही है अत: उसकी जडता अयुक्तिक हुयी / यदि नीलादि की अपरोक्षता परावलम्बी विज्ञान पर आधारित) होने से उसे ग्राह्य, केवल ग्राह्य ही माना जाय तो विज्ञान को भी ग्राह्य ही कहना होगा क्योंकि विज्ञान का स्वरूप भी इन्द्रियादि पर ही अवलम्बित होता है / यदि-'जो इन्द्रिय का कार्य हो वह वेद्य (ग्राह्य)
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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