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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 किं च, तदनुमानं स्वभावहेतुप्रभावितं, कार्यहेतुसमुत्थं, अनुपलब्धिलिंगप्रभवं वा प्रतिबन्धग्राहक स्यात् ? अन्यस्य साध्यनिश्चायकत्वेन सौगतैरनभ्युपगमात् / तदुक्तम्-'त्रिरूपाणि च त्रिण्येव लिगानि अनुपलब्धिः, स्वभावः, कार्य च' इति / 'त्रिरूपाल्लिगाल्लिगिविज्ञानमनुमानम् [न्याबिंदु सू०११-१२]' इति च / तत्र स्वभावहेतुः प्रत्यक्षगृहीतेऽर्थे व्यवहारमात्रप्रवर्तनफलः यथा शिशपात्वादिवृक्षादिव्यवहारप्रवर्तनफलः / न च अक्षाश्रितगुणलिंगसम्बन्धः प्रत्यक्षतः प्रतिपन्नो, येन स्वभावहेतुप्रभवमनुमानं तत्सम्बन्धव्यवहारमारचयति / [उसी अनुमान से व्याप्तिग्रहण में अन्योन्याश्रय ] ( तथाहि-गृहीतप्रतिबन्धं तत् ) (1) यहाँ मूल अनुमान 'इन्द्रियं गुणवत् स्वकार्याऽसाधारणकारणत्वात् यथा कुठारः ( तीक्ष्णतादिगुणवान् )-गुणवत्ता इसमें व्यापक है और स्वकार्याऽसाधारणकारणत्व व्याप्य है / इन दोनों की व्याप्ति का ज्ञान द्वितीय अनुमान से करना है / (2) वह इस प्रकार-'स्वकार्याऽसाधारणकारत्वं गुणव्याप्यम् असाधारणकारणवृत्तित्वात्' / अब इस द्वितीय अनुमान के लिंग में व्याप्ति संबन्ध अगर उसी द्वितीयानुमान से ही निश्चित होगा तो इस प्रकार अन्योन्याश्रय होगा कि अपने लिंग का सम्बन्ध निश्चित होने पर वह द्वितीय अनुमान अपने साध्यभूत प्रथम अनुमान की व्याप्ति के ग्रहण में प्रवृत्त होगा, और वह द्वितीय अनुमान प्रवृत्त होगा तभी अपने उत्पादक लिंग के व्याप्ति सम्बन्ध का ग्रहण होगा। स्पष्ट ही अन्योन्याश्रय है। [ अन्य अनुमान से व्याप्तिग्रहण में अनवस्था ] ... H यदि कहें, इस द्वितीय अनुमान की व्याप्ति का ज्ञान अन्य अनुमान के द्वारा होता है, तो यह भी युक्त नहीं है। क्योंकि इस रीति से मानने पर अनवस्था आ जाती है। यह इस प्रकारयह पूर्वोक्त अनुमान की व्याप्ति का ग्राहक तृतीय अनुमान भी अपनी व्याप्ति के ज्ञान के विना नहीं हो सकता और इस व्याप्ति ज्ञान के लिए भी अन्य अनुमान की आवश्यकता होगी। तथा वह अन्य अनुमान भी अपने हेतु और साध्य को व्याप्ति को जानने के लिये अन्य अनुमान की अपेक्षा करेगा। इस प्रकार अनवस्था होगी। 1 [व्याप्ति ग्राहक अनुमान के संभवित तीन हेतु ] इसके अतिरिक्त यह भी सोचना चाहिये कि जिस अनुमान को आप प्रथम अनुमान की व्याप्ति का ग्राहक कहते हो वह अनुमान क्या (1) स्वभाव हेतु से उत्पन्न है ? (2) कार्य हेतु से उत्पन्न है ? अथवा (3) अनुपलब्धि हेतु से उत्पन्न है ? इन तीनों से भिन्न किसी लिंग को बौद्ध लोग साध्य का साधक नहीं मानते हैं। कहा भी है - 'त्रिरूपाणि च त्रिण्येव लिंगानि / अनुपलब्धिः, स्वभावः, कार्य च' इति 'त्रिरूपाल्लिगाल्लिगिविज्ञानमनुमानम्' / [ धर्मकीत्ति कृत न्यायबिंदु सूत्र 11-12 ] इति च / पक्षसत्त्व-सपक्षसत्त्व-विपक्षासत्त्वरूपाणि /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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