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________________ सम्मतिप्रकरण-काण्ड 1 [ (1) परत उत्पत्तिवादप्रतिक्षेपारम्भः-पूर्वपक्षः] अत्र यत्तावदुक्तं-'प्रामाण्यं विज्ञानोत्पादककारणव्यतिरिक्तगुणादिकारणसव्यपेक्षमुत्पत्तौ'तदसत् , तेषामसत्त्वात् / तदसत्त्वं च प्रमाणतोऽनुपलब्धेः। तथाहि-न तावत्प्रत्यक्षं चक्षुरादीन्द्रियगतान् गुणान् ग्रहीतु समर्थम् , अतीन्द्रियत्वेनेन्द्रियाणां तद्गुणानामपि प्रतिपत्तुमशक्तेः / अथानुमानमिन्द्रियगुणान् प्रतिपद्यते-तदप्यसम्यक अनुमानस्य प्रतिबद्धलिडलिवयबरेलोनारपYषणमात्रा प्रतिबन्धक किं A प्रत्यक्षेणेन्द्रियगतगुणैः सह गृह्यते लिंगस्य, B आहोस्विदनुमानेनेति वक्तव्यम् / तत्र यदि प्रत्यक्षमिन्द्रियाश्रितगुणैः सह लिङ्गसम्बन्धग्राहकमभ्युपगम्यते, तदयुक्तम् , इन्द्रियगुणानामप्रत्यक्षत्वे तद्गतसम्बन्धस्याप्यप्रत्यक्षत्वात् / * 'द्विष्ठसंबंधसंवित्तिर्नेकरूपप्रवेदनात्' इति वचनात् / दीपक का प्रकाश जिस प्रकार घटादि को प्रकाशित करता है इसी प्रकार दीपक को भी प्रकाशित करता है। दोपक से जैसे घटज्ञान होता है इसी प्रकार स्व का भी ज्ञान होता है, दीपक को देखने के लिये अन्य दीपक नहीं लाना पड़ता इसी प्रकार वस्तु के प्रकाशक ज्ञान को प्रकाशित करने के लिए किसी अन्य प्रकाशक ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती। इस प्रकार जैसे ज्ञान अपनी ज्ञप्ति में स्वतः है वैसे ज्ञानगत प्रामाण्य भी अपनी ज्ञप्ति में अर्थात अपने ज्ञान के लिये स्वत: है, ज्ञान का से अतिरिक्त कारण की अपेक्षा नहीं रखता / अर्थात् जैसे ज्ञान का अनुभव वस्तु के अनुभव के साथ ही हो जाता है वैसे स्वतःप्रामाण्यवादो के मत में ज्ञानप्रामाण्य का अनुभव भी वस्तु के अनुभव के साथ ही हो जाता है / सारांश, 'अयं घटः' इस अनुभव के साथ उसके प्रामाण्य का भी अनुभव एक : साथ ही होता है / इसलिये प्रामाण्य अपने ज्ञान के विषय में भी स्वत: है / यह स्वतः प्रामाण्यवादियों का अभिप्राय है / परतः प्रामाण्यवादी इनके विरुद्ध हैं। [(1) प्रामाण्य उत्पत्ति में परतः नहीं है-पूर्वपक्ष ] स्वतःप्रामाण्यवादी:-आपने जो कहा-'प्रामाण्य यह ज्ञान के उत्पादक कारणों से भिन्न गुण आदि कारण की अपेक्षा उत्पत्ति के लिए रखता है'-यह कथन अयुक्त है / जिन गुणों की आप अपेक्षा कहते हैं वे गुण विद्यमान नहीं है-असत् हैं / जो असत् हैं उनकी अपेक्षा नहीं हो सकती / वे गुण असत् इसलिये हैं कि वे किसी प्रमाण से प्रतीत नहीं है / यह इस प्रकार-अगर आप 'गुण' करके इन्द्रियगत गुणों को पुरस्कृत करते हो तब चक्षु आदि इन्द्रियगत गुणों को जानने में प्रत्यक्ष प्रमाण समर्थ नहीं है। क्योंकि-चक्षु आदि इन्द्रिय अतीन्द्रिय हैं इसलिये उनके आश्रित गुण भी अतीन्द्रिय होने से इन्द्रियों द्वारा उनका प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता। अगर आप कहें, 'अनुमान इन्द्रियों के गुणों को ग्रहण करेगा' तो यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रतिबन्ध अर्थात् व्याप्ति से युक्त हेतु के निश्चय के बल पर अनुमान का उत्थान होता है। प्रकृत स्थल में इन्द्रिय गुणों का अनुमान करने के लिये जब हेतु का प्रयोग करते हैं तब इन्द्रिय के गुणों के साथ हेतु की व्याप्ति का निर्णय आवश्यक है किन्तु किसी भी प्रमाण से व्याप्ति संबंध निश्चित नहीं हो सकता। [प्रत्यक्ष से व्याप्तिग्रहण का असंभव ] यह इस प्रकार-A इन्द्रियगत गुणों के साथ हेतु का व्याप्ति नामक संबंध प्रत्यक्ष से निश्चित * 'द्वयस्वरूपग्रहणे सति सम्बन्धवेदनम्' इत्युत्तरार्धम् /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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