________________ 152 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यतो यदि व्यंजका वायवो यत्रैव संनिहितास्तत्रैव वर्णसंस्कारं कुर्युस्तदा स्यादप्येतत् , किंतु तथाभ्युपगमे वर्णस्य सावयवत्वम् अनभिव्यक्तस्वरूपादभिव्यक्तस्वरूपस्य च भेदादनेकत्वं च स्यात् / सर्वात्मना तु संस्कारे यच्छरीरसमीपस्थैर्नादः स्याद् यस्य संस्कृतिः। तैर्यथा श्रयते शब्दस्तया दूरगतैर्न किम् ? / [ ] उत्पत्तिपक्षे तु अव्यापकत्वाद् यत्समीपवर्ती वर्ण उत्पन्नस्तेनैवासौ गृह्यते न दूरस्थरिति युक्तम् / 'दिग्देशाद्यविभागेन' इति चातीवाऽसंगतम् , अविभागस्य कस्यचिद् वस्तुनोऽसंभवेनानभ्युपगमात् / __किंच, व्यापकत्वेन वर्णानामेकवर्णाऽऽवरणापाये समानदेशत्वेन सर्वेषामनावृतत्वाद् युगपत सर्ववर्णश्रुतिश्च स्यात् / अथापि स्यात् प्रतिनियतवर्णश्रवणान्यथानुपपत्त्या व्यंजकभेदसिद्धेः प्रतिनियतसाधारण हो जाता है / इस प्रकार सर्व के प्रति साधारण होने पर भी वह सर्व को नहीं सुनाई देता किन्तु जिस देह के निकट वर्ण उत्पन्न हआ हो, केवल उस देही को ही वह सुनाई देता है / उसी प्रकार हमारे अभिव्यक्तिपक्ष में भी वर्ण जो कि दिकसंबंधी होने के कारण नहीं किंतु स्वतः ही सर्वगत है, फिर भी वर्ण सभी को नहीं सुनाई देता किन्तु जिस देही के निकट में वह अभिव्यक्त होता है उनको ही वह सुनाई देता है। इस प्रकार अभिव्यंजक ध्वनियों का सांनिध्य और असांनिध्य ही वर्ण के श्रवणअश्रवण का प्रयोजक है-यह युक्त है। हमारे कुमारिल भट्टने भी यही कहा है-[ उत्पत्तिपक्ष में ] उत्पन्न होता हुआ भी शब्द जैसे दिग् आदि का कोई विभाग न होने के कारण सर्व प्रति साधारण होता हुआ भी सर्व को नहीं सुनाई देता। उसी प्रकार [ अभिव्यक्ति पक्ष में ] श्रोता के समीप उत्पन्न नादों से जिसको संस्कार होता है उसको ही वह सुनाई देता है-दूर रहे हुए सभी को नहीं / [वर्ण में सावयवत्व और अनेकत्व की आपत्ति-उत्तर ] अभिव्यक्तिवादी का यह कथन प्रलापतुल्य इसलिये है कि-अभिव्यंजक वायुओं जिनके निकट में होंगे वहाँ ही वर्णसंस्कार निष्पन्न करे ऐसा होने पर तो वह कथन टीक था, किन्तु ऐसा मानने पर वर्ण को सावयव मानना पडेगा क्योंकि वर्ण व्यापक है और संस्कार समग्र वर्ण में न होकर किसी नियत अंश में ही है-यह निरंश वस्तु में नहीं हो सकता। तथा अमूक देश में वर्ण अभिव्यक्ति और अन्य देश में अनभिव्यक्ति इस प्रकार वर्णस्वरूप में भेद आपन्न होने से वर्ण अनेक हो जायेंगे तो वर्ण के एकत्ववाद का भंग होगा। किसी नियत अंश में वर्ण का संस्कार न मानकर सर्वात्मना यानी अखण्ड वर्ण में संस्कार मानेंगे तो जिस देही के निकट में रहे हये नादों से जिसका संस्कार होता है उसको जैसे शब्द सुनाई देता है वैसे दूर रहे हुए को भी क्यों नहीं सुनाई देता? [ संस्कार तो अखण्ड वर्ण में सर्वत्र होने का मानते हैं ] / उत्पत्तिपक्ष में-वर्ण व्यापक नहीं है इसलिये जिसके श्रोत्र के निकट वर्ण उत्पन्न होता है उसी को श्रवण होता है दूर रहे हुये सज्जनों को नहीं होता है-यह घट सकता है। दिग्-देश आदि का 'विभाग न होने से अविभक्तदिग् संबंधी होने के कारण वर्ण सर्व के प्रति साधारण होता है' यह जो आपने कहा वह तो अत्यन्त अयुक्त है। क्योंकि दिग् आदि किसी पदार्थ का [ जैन मत में ] संभव न होने से स्वीकार्य नहीं है।