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________________ 380 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 प्रतिनियतकर्मफलसम्बन्धप्रतिपादकश्चागमः-"बह्यारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्य" [ त० सू०. 6-16 ] इत्यादिना वाचकमुख्येन सूत्रीकृतोऽस्यैवानुमानविषयत्वं प्रतिपादयितुकामेन / यथा च कर्मफलसंबन्धोऽप्यात्मनोऽनुमानादवसीयते तथा यथास्थानमिहैव प्रतिपादयिष्यामः। आत्मस्वरूपप्रतिपादकः प्रतिनियतकर्मफलसम्बन्धप्रतिपादकश्चागमः “एगे आया" | स्थाना० 1-1] "पुट्विं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिकंताणं कडाणं कम्माणं' [ * ] इत्यादिकः सुप्रसिद्ध एव / तदेवं प्रत्यक्षानुमानागमप्रमाणप्रसिद्धत्वाद् नारक-निर्यग्-नरामरपर्यायानुभूतिस्वभावस्यात्मनः, न भवशब्दव्युत्पत्तिराभाबात डिस्थादिशब्दव्युत्पत्तितुल्या इति स्थितम् / / को प्रमाण मानने वाले मीमांसकों ने जो आगम के प्रामाण्य को मान कर यह कहा है कि "वेदशास्त्र का प्रयोजन क्रिया में प्रवृत्ति है अतः क्रियाप्रवर्तक न हो ऐसे अर्थवाद और मन्त्र विभाग का वेद उनके प्रतिपाद्यविषय में प्रमाणभूत नहीं है"....इत्यादि, वह भी युक्त नहीं है। कारण यह है कि प्रत्यक्षप्रतीतिगोचर पदार्थ जब विवादास्पद बन जाता है तब उस विषय में अनुमान प्रवृत्त होता है यह पहले [ पृ० 305/4 ] कह दिया है / तो ठीक उसी प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान से आत्मपदार्थ सिद्ध होने पर अथवा उसके साथ प्रतिनियत कर्म-फल सम्बन्ध की सिद्धि होने पर भी उस विषय में आगम की प्रवृत्ति स्वीकृत क्यों न की जाय ? ! 'वहाँ आगम प्रमाण ही नहीं है' यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि उस विषय का प्रतिपादक आगम सर्वज्ञप्रणीत होने से प्रमाणभूत है यह पहले सिद्ध किया जा चुका है। [ आत्मा और कमफलसम्बन्ध में आगम प्रमाण ] 'प्रतिनियतकर्मफल सम्बन्ध अनुमान का विषय है' यह दिखाने की इच्छा, वाले वाचकशिरोमणि आचार्य श्री उमास्वाति महाराज ने, प्रतिनियतकर्मफल सम्बन्ध का प्रतिपादन करने वाले'बाह्यारम्भपरिग्रहत्वं च नारकस्य' [ तत्त्वार्थ 6-16 ] अर्थ:-बहुत आरम्भ ( हिंसादि ) और परिग्रह नरक-आयुष का आश्रव है-इस आगम का सूत्रण-प्रणयन किया ही है। तदुपरांत आत्मा के साथ कर्मफल का सम्बन्ध किस प्रकार अनुमान गोचर है वह इसी ग्रन्थ में यथावसर कहेंगे / आत्मस्वरूप का प्रतिपादक सुप्रसिद्ध आगम वाक्य स्थानांग सत्र में इस प्रकार है "एगे आया"। आया=आत्मा। तथा प्रतिनियत कर्म-फल सम्बन्ध का प्रतिपादक आगम सुप्रसिद्ध है-"पूवि दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं कम्माणं” इत्यादि....अर्थात्-"भूतकाल में प्रतिक्रमण किये विना रह गये कुसंचित कृत कर्मों का भोग के विना अथवा तप से निर्जीण किये विना मोक्ष नहीं है"..इत्यादि। पूर्वोक्त चर्चा से, आत्मा प्रत्यक्ष-अनुमान और आगम प्रमाण से प्रसिद्ध है, अतः आत्मा का यह स्वभाव भी 'नारक-तिर्यंच-देव-मनुष्यादि अवस्थाओं को अनुभव करना'-प्रमाण से सिद्ध होता है। भव शब्द का यह अर्थ भी प्रमाण से सिद्ध है अतः पूर्वपक्षी ने जो कहा था-'भवशब्द का कोई प्रमाण सिद्ध अर्थ न होने से भवशब्द की व्युत्पत्ति डित्थादि अर्थशून्य शब्दों की व्युत्पत्ति से तुल्य है'यह नि:सार सिद्ध होता है। [परलोकवाद समाप्त ] * द्रष्टव्य ज्ञाताधर्मकथासूत्र-पृ० 204/1 पं० 1, तथा विपाकसूत्र पृ०३८/२-पं० 1 में "पुरा पोराणापं दुच्चिण्णाणं दुप्पडिक्कंताणं कडाणं पावाणं कम्माणं"-इत्यादि /
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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