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________________ 512 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 भाव: न चापि विरुद्धता, सपक्षे भावात् / चैवं (? तदेवं) भवति तस्माद् विपर्ययप्रयोगः-यद् यदा न भवति न तत् तदानीमविकलकारणम् यथा कुशूलावस्थितबीजावस्थायामनुपजायमानोंऽकुरः, न भवति चैकपदार्थोत्पत्तिकाले सर्व विश्वम इति व्यापकानुपलब्धिः / न च सिद्धसाध्यता, ईश्वरस्य तज्ज्ञा. नादेर्वा कारणत्वे विकलकारणत्वानुपपत्तेः प्रसाधितत्वात् / तन्न नित्यज्ञान प्रयत्न-चिकीर्षाणां तत्समवायस्य वा नित्यस्य कर्तृत्वं युक्तम् / तस्मात् शरीरसम्बन्धस्यैव कुम्भकारादौ कर्तृत्वव्यापकत्वेन प्रतीतेस्तदभावे कर्तृत्वस्यापि व्याप्यस्याभावप्रसंगः। तच्च a क्वचित् करादिव्यापारेण कारकप्रयोक्तृत्वलक्षणम्-यथा कुम्भकारस्य दण्डादिकारणप्रयोक्तृत्वम् , b अपरं वाग्व्यापारेण-यथा स्वामिनः कर्मकरादिप्रयोक्तत्वस्वरूपम्, c अन्यच्च प्रयत्नव्यापारेण-यथा जाग्रत: स्वशरीरावयवप्रेरकत्वस्वभावम् , d किंचिच्च निद्रा-मद प्रमादविशेषेण ताल्वादि-करादिप्रेरकत्वम्, सर्वथा शरीरसम्बन्ध एव कर्तृत्वस्य व्यापकः, स चेदीश्वरान्निवर्तते स्वव्याप्यमपि कर्तृत्वमादाय निवर्तते इति न तस्य कर्तृत्वमभ्युपगन्तव्यमिति प्रसंगः। . ___ अथ तस्य जगत्कर्तृत्वमभ्युपगम्यते तदा शरीरसम्बन्धः कर्तृत्वव्यापकोऽभ्युपगन्तव्य इति प्रसंगविपर्ययः। न च कारकशक्तिपरिज्ञानलक्षणं तस्य कर्तत्वम-येन प्रसंग-विपर्यययोर्याप्त्यसि स्यात्-कुम्भकारादौ मुद्दण्डादिकारकशक्तिपरिज्ञानेऽपि शरीरव्यापाराभावे घटादिकार्यकर्तृत्वाऽदर्शनात् [प्रसंगसाधन के बाद विपर्ययप्रयोग] अविकलकारणत्व हेतु विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि अंकुरादि सपक्ष में विद्यमान है / अब तो प्रसंग साधन प्रयोग की तरह विपर्यय प्रयोग भी इस प्रकार किया जा सकता है जो जब नहीं उत्पन्न होता वह उस काल में अविकलकारणवाला नहीं होता। उदा० बीज की कुशूल ( कोठार ) गत अवस्था में अंकर उत्पन्न नहीं होता है। (प्रस्तूत में, किसी एक वस्तु की उत्पत्ति काल में सारा जगत् उत्पन्न नहीं होता / इस विपर्यय प्रयोग में व्यापक ( उत्पत्ति ) की अनुपलब्धि को हेतु किया गया है। यदि ऐसा कहें कि इसमें सिद्धसाध्यता दोष है क्योंकि हम भी अंकुरादि की उत्पत्ति के विरह में ईश्वरज्ञानादि के विरह को मानते ही हैं तो यह बात गलत है क्योंकि जब विश्व का कारण ईश्वर और उसका ज्ञानादि है तब विकलकारणता की उपपत्ति करना ही कठीन है, यह बात विस्तार से कह दी गयी है / निष्कर्षः-नित्य ज्ञान, प्रयत्न और इच्छा अथवा तो उनके नित्य समवाय से कर्तृत्व की बात युक्त नहीं है। [शरीरसम्बन्ध कतृत्व का व्यापक ] उपरोक्त चर्चा का सार यह है कि कुम्भकारादि में कर्तृत्व के व्यापक रूप में शरीर का सम्बन्ध दिखाई देता है, अतः ईश्वर में यदि व्यापकभूतशरीरसम्बन्ध नहीं मानना है तो उसके व्याप्यभूत कर्तृत्व के अभाव की आपत्ति होगी / कर्तृत्व के भी विविध प्रकार हैं, वे कहीं कहीं हस्तादि के व्यापार से शेष कारकों को प्रेरित (संचालित) करना यही कर्तृत्व है, उदा० दण्डादि कारणों का संचालन करने वाला कुम्हार घट का कर्ता होता है। b कहीं, वाणी के व्यापार से भी कर्तत्व होता है उदा० मालिक अपने मौखिक आदेशों से कर्मचारिगण को क्रियान्वित करता है। कहीं सिर्फ प्रयत्न के व्यापार से ही कर्तृत्व होता है-उदा० जाग्रत् दशा में अपने हस्त-पादादि के संचालन का कर्तृत्व सिर्फ प्रयत्न व्यापार से होता है / d कहीं, निद्रा-उन्माद-प्रमादादि विशेष अवस्था से ओष्ठ-तालु
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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