________________ प्रथमखण्ड-का० १-ज्ञातृव्यापार० 109 ऽभिमतफलजनिका व्यापारस्वरूपा क्रियाऽभ्युपगन्तव्या, इति प्रकृतेऽपि व्यापारसिद्धिरिति / एतदसम्बद्ध, विकल्पानुपपत्तेः / तथाहि-व्यापारोऽभ्युपगम्यमानः कि कारकजन्योऽभ्युपगम्यते आहोस्विद् अजन्य इति विकल्पद्वयम् / तत्र यद्यजन्य इति पक्षः सोऽयुक्तः, यतोऽजन्योऽपि कि भावरूपोऽभ्युपगम्यते प्राहोस्विदभावरूप: ? यद्यभावरूप इत्यभ्युपगमः, सोऽप्ययुक्तः, यतोऽभावरूपत्वे तस्याऽर्थप्रकाशलक्षणफलजनकत्वं न स्यात, तस्य फलजनकत्वविरोधात् / अविरोधे वा फलार्थिनः कारकान्वेषणं व्यर्थ स्यात्, तत एवाभिमतफलनिष्पत्तेविश्वमदरिद्रं च स्यात् / तन्नाभावरूपो व्यापारोऽभ्युपगन्तव्यः / अथ भावरूपोऽभ्युपगमविषयः, तदाऽत्रापि वक्तव्यम्-किमसौ नित्यः आहोस्विद् अनित्य इति ? तत्र यदि नित्य इति पक्षः, सोऽसंगतः, नित्यभावरूपव्यापाराभ्युपगमेऽन्धादीनामप्यर्थदर्शनप्रसंगः, सुप्ताद्यभावः, सर्वसर्वज्ञताभावप्रसंगश्च / कारकान्वेषणवैयर्थ्यं तु व्यक्तम् / अथाऽनित्य इत्यभ्युपगमः, सोऽप्यलौकिकः, अजन्यस्य भावस्याऽनित्यत्वेन केनचिदनभ्युपगमात् / अथ वदेत् युपगतः, तत्रापि वक्तव्यम-कि कालान्तरस्थायी उत क्षणिकः? [व्यापार सिद्धि के लिये नविन कल्पनाएँ ] ज्ञातृव्यापार को सिद्ध करने के लिये यदि पुनः यह कहा जाय कि-'कोई भी बाह्य कारक उदासीन रहे तब तक कार्योत्पत्ति नहीं हो पाती किंतु उदासीनता को छोडकर सक्रिय (=व्यापारवंत) बने हुए बाह्य कारकों के रहते ही फलोत्पत्ति देखी जाती है। ऐसा न माने तो यह प्रश्न दुरुत्तर हो जायगा कि अपने अपने स्वभाव से सम्पन्न बाह्य कारक चक्र किसी एक 'छिद्' आदि धातु के छेदन क्रियादि अर्थ को सिद्ध करने में उद्यत होगा तब उन कारकों में परस्पर संवादी ऐसा कौन सम्बन्ध होगा जिससे एक कार्य के साथ उन कारकों का मेल बन सके ? इसलिये यही मानना होगा कि कारकों का संनिधान और छेदन क्रिया निष्पत्ति इनके बीच में सकल कारकों से उत्पन्न वांछित फल निष्पादक कुठार की दृढ़ प्रहारादि कोई एक व्यापार स्वरूप क्रिया होती है। तो इसी प्रकार प्रस्तुत में भी प्रमाणोत्पत्ति के पूर्व ज्ञाता का कोई न कोई व्यापार सिद्ध होता है।'• किंतु यह बात संबंधरहित है क्योंकि इसके उपर कोई विकल्प घटता नहीं है। जैसे किप्रथम विकल्प, बीच में जिस व्यापार की कल्पना की जाती है वह कारकों से उत्पन्न होता है या (दूसरा विकल्प) उत्पन्न ही नहीं होता? दूसरा विकल्प नहीं घट सकता, क्योंकि उसके उपर दो प्रश्न हैं-(A) वह अजन्य व्यापार भावरूप मानते हैं ? या (B) अभावरूप? अभावरूप का अंगीकार करेंगे तो वह अयुक्त है यदि वह अभावरूप होगा तो उसमें अर्थप्रकाशन स्वरूप फल की जनकता नहीं घटेगी, क्योंकि अभाव को किसी कार्य की उत्पादकता के साथ विरोध है। विरोध नहीं है यह तो नहीं कह सकते क्योंकि तब तो फलार्थी की कारकों की खोज व्यर्थ हो जायगी, कारण, सर्वत्र सुलभ अभाव से ही वांछित फल उत्पन्न हो जाने से विश्व में फिर कौन दरिद्र रहेगा। निष्कर्षअभावरूप व्यापार नहीं माना जा सकता। [अजन्य भावरूप व्यापार नित्य है या अनित्य ? ] (A) अजन्य व्यापार को यदि भावस्वरूप माना जाय तो यहाँ भी कुछ कहना है-क्या वह नित्य है या अनित्य ? अगर नित्य पक्ष माना जाय तो वह संगत नहीं है, क्योंकि कारक-व्यापार को नित्यभाव रूप मानने पर अन्ध पुरुष को भी पदार्थों का दर्शन होने की आपत्ति होगी, एवं सुषुप्ति