SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 293
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 260 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 इति-तदयुक्तम् , एवं हि परिकल्प्यमाने स्वरूपमात्रसंवेदनात अद्वैतमेव प्राप्तम् , ततः सर्वपदार्थाभावे व्यवहाराभावः। अथ व्यवहारोच्छेदभयात् पदार्थसद्भावोऽभ्युपगम्यते तहि सर्वपदार्थसंबन्धिताऽपि साक्षात् पारम्पर्येण च पदार्थस्वभावोऽभ्युपगन्तव्यः, अन्यथा साक्षात् पारंपर्येण वाऽन्यपदार्थजन्यजनकतालक्षणसंबन्धिताऽनभ्युपगमे तद्वयावृत्त्यनुगतिसंबन्धिताऽनभ्युपगमे च पदार्थस्वरूपस्याप्यभावः / तत्पदार्थपरिज्ञाने च तद्विशेषणभता तत्संबंधिताऽपि ज्ञातव, अन्यथा तस्य तत्परिज्ञानमेव न स्यात् / तत्परिज्ञाने च सकलपदार्थपरिज्ञानमस्मदादीनामनुमानतः, सर्वज्ञस्य य साक्षात् तज्ज्ञानेन सकलपदार्थज्ञानम्। लोकस्तु प्रत्यक्षेण कथंचित् कस्यचित् प्रतिपत्ता। तथाहि-धमस्याप्यग्निजन्यतया प्रतिपत्ती बाष्पादिव्यावृत्तधूमस्वरूपप्रतिपत्तिः, अन्यथा व्यवहाराभावः / तथा नीलादिप्रतिभासस्य बाह्यार्थसंबधितयाऽप्रतिपत्तौ बाह्यार्थाऽप्रतिपत्तिरेव स्यात् / तस्मात् संबंधितयैव पदार्थस्वरूपप्रतिपत्तिः, तच्च संबंधित्वं प्रमेयमनुमानेन प्रतीयतेऽभ्यासदशायामस्मदादिभिः, यत्र क्षयोपशमलक्षणोऽभ्यासस्तत्र तस्य प्रत्यक्षतोऽपि प्रतिपत्तिरिति कथं न प्रधानभूतपदार्थवेदने सकलपदार्थवेदनम् , एकवेदनेऽपि सकलवेदनस्य प्रतिपादितत्वात् ? [पदार्थों में अन्योन्यसंबंधिता परिकल्पित नहीं है ] यदि यह शंका की जाय-सर्वपदार्थसंबन्धितारूप स्वभाव यह पदार्थ का तात्त्विक स्वरूप ही नहीं है, जो केवल संनिहित हो और प्रत्यक्ष से प्रतीत हो वही वस्तु का स्वभाव होता है / संबंधिता तो काल्पनिक है, जब अन्य कोई वस्तु का दर्शन होता है तो उसके साथ संबन्ध की संभावना मात्र से संबंधिता की कल्पना की जाती है। जैसे कि कहा गया है-“कार्य अपनी उत्पत्ति के बाद स्वतन्त्र होता है। फिर भी उस कार्य का अपने कारण के साथ साथ किसी प्रकार कल्पना के द्वारा र दिया जाता है। किन्तु जो अकार्य है उसका किसी भी प्रकार से अन्य के साथ संबंध नहीं होता।" / प्रमाणवात्तिक 2-26 ] इस उक्ति से यह फलित होता है कि कार्य-कारण सम्बन्ध भी काल्पनिक है। यह शंका ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर ज्ञान का अर्थ के साथ भी सबंधाभाव हा जा पर ज्ञान में केवल अपने स्वरूपमात्र का संवेदन ही शेष रह जायेगा तो विज्ञानाद्वैतवाद का साम्राज्य फल जायेगा और उससे सकल पदार्थ का अभाव सिद्ध होने से उन पदार्थों का सभी व्यवहार विलुप्त हो जायगा / यदि व्यवहार के उच्छेद भय से पदार्थों का अस्तित्व मानेगे तो सभी पदार्थों का साक्षात् अथवा परम्परा से अन्योन्य संबंध भी सिद्ध होने से उसको भी साक्षात् अथवा परम्परा से वस्तुस्वभावरूप ही मानना होगा। यदि आप साक्षात् अथवा परम्परा से अन्यपदार्थों के साथ जन्यजनक भावस्वरूप संबंध का अस्वीकार करेंगे, तथा अन्यपदार्थों के साथ अनुवृत्ति और व्यावृत्ति रूप संबंध का भी अस्वीकार करेंगे तो पदार्थ का उस संबंध को छोड कर अन्य कोई स्वरूप ही न होने से वस्तु में स्वरूप का अभाव ही प्रसक्त होगा। यदि पदार्थ का परिज्ञान मानना ही है तो पदार्थस्वरूप में विशेषणरूप से अन्तर्भूत अन्यपदार्थसंबंधिता का भान मानना ही होगा, उसके विना पदार्थ का ही भान नहीं हो सकेगा। जब सकलपदार्थसंबंधिता का उक्त रीति से भान स्वीकारना है तो अब यह कहा जा सकता है कि हम लोगों को सकलपदार्थों का ज्ञान अनमान से हो सकता है और सर्वज्ञ को साक्षात् सकलपदार्थसंबंधिता का ज्ञान होने से सर्वपदार्थ का ज्ञान सिद्ध होता है। .
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy