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________________ 612 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्चेदम् सुषुप्तावस्थायां हि ज्ञानसद्भावे जानदवस्थाज्ञानं कारणम्' इति (अ) सतत् , सषुप्तावस्थायां हि ज्ञानसद्धावे जाग्रदवस्थातो न विशेषः स्यात् , उभयत्रापि स्वसंवेद्यज्ञानस्य सद्धावाडविशेषात् / मिद्धेनाभिभूतत्वं विशेष' इति चेत् ? असदेतत् , तस्यापि तद्धर्मतया तादाम्येनाभिभावकत्वाऽयोगात् / व्यतिरेके तु रूपादिपदार्थानामेव सत्त्वात् तत्स्वरूपं निरूप्यम् , अभिभवश्च यदि विनाशः, न विज्ञानस्य सत्त्वं विनाशस्य वा निर्हेतुकत्वम् / अथ तिरोभावः, न, विज्ञानस्य सत्त्वेन 'तत्सत्तैव संवेदनम्' इत्यभ्युपगमे तस्यानुपपत्तेः, अतः सुषुप्तावस्थायां विज्ञानाऽसत्त्वेनान्त्यज्ञानस्य सद्भावादेकज्ञानसन्तानत्वं व्यभिचारीति / देगा। जब कोई नियम ही नहीं है तो अन्य सन्तान में ज्ञानोत्पत्ति की आपत्ति क्यों नहीं होगी ? यदि कहें कि-हम तो उपाध्याय के ज्ञान से शिष्य सन्तान में ज्ञान की उत्पत्ति को मानते ही हैं अत: जो आपत्ति आपने कही है वह अनिष्टरूप नहीं है / तो इसके ऊपर भी प्रश्न है कि जैसे शिष्यों को ज्ञान उत्पन्न होगा वैसे दूसरे को भी क्यों उत्पन्न नहीं होगा, जब कोई नियामक ही नहीं है ? यदि अन्य सन्तान में ज्ञानोत्पत्ति का वारण करने के लिये कहा जाय कि कर्मवासना नियामक है-तात्पर्य यह है कि जिस सन्तान में ज्ञानोत्पादअनुकुल कर्मवासना विद्यमान होगी उसी सन्तान में नया विज्ञान उत्पन्न होगा, चैत्र सन्तान की कर्मवासना मैत्रसन्तान में न होने से वहाँ ज्ञानोत्पत्ति की आपत्ति नहीं होगी-तो यह भी अयुक्त है क्योंकि बौद्धमत से विज्ञान से विभिन्न कर्मवासना का स्वरूप ही कुछ नहीं है। देखिये-कर्मवासना का विज्ञान के साथ यदि तादात्म्य मानेंगे तो विज्ञान तो बोधरूपता से अतिरिक्त नहीं है अतः कर्मवासना यदि बोध से अभिन्न होगी तो उसमें भी बोधरूपता ही प्रसक्त है। अतः / चैत्र सन्तान के ज्ञान से मैत्र में ज्ञानोत्पत्ति किसी भेदभाव के विना ही होने की आपत्ति लगी रहेगी। [ सुषुप्तावस्था में ज्ञान की सिद्धि अशक्य ] 'तथा यह जो आपने कहा-सुषुप्तावस्था के साथ में जाग्रत् अवस्था का ज्ञान कारण है-यह भी गलत ही कहा है / कारण, यदि सुषुप्ति में भी ज्ञान मानेंगे तो फिर सुषुप्ति और जागृति में कोई भेदभाव ही नहीं रहेगा, क्योंकि दोनों अवस्था में स्वयंसंवेदी ज्ञान का सद्भाव समानरूप से है फिर सुषुप्ति कैसे ? यदि कहें कि वहाँ स्वसंवेदीज्ञान मिद्धदशा ( घेन ) से अभिभूत (दबा हुआ) है यही सषप्ति में विशेषता है तो यह बात गलत है क्योंकि मिद्धदशा भी बौद्धमत में ज्ञान का ही धर्म होने से ज्ञान से अभिन्न ही है। स्व से अभिन्न पदार्थ में स्व की अभिभावकता मानना संगत नहीं है। यदि उसे ज्ञान से भिन्न मानेगे तो वह बौद्ध मत में प्रसिद्ध रूपस्कन्धादि में से ही कोई न कोई मानना होगातो अब यही खोजना पडेगा कि वह रूपात्मक है या रसात्मक है इत्यादि / तथा अभिभव का अर्थ यदि विनाश किया जाय तो एक बात यह होगी कि विज्ञान का सत्त्व ही उपपन्न नहीं होगा क्योंकि विज्ञानोत्पादक सामग्रीकाल में उसकी नाशक सामग्री भी विद्यमान है अतः उसकी उत्पत्ति ही नहीं होगी तो सत्त्व कैसे मानेंगे? दूसरे, मिद्धदशा यदि विज्ञान से भिन्न और विज्ञान की नाशक होगी तब तो नाश को सहेतुक मानना पड़ेगा, अत: बौद्ध मत में नाश की निर्हेतुकता का भंग होगा। अभिभव का अर्थ यदि तिरोभाव किया जाय ( जैसे कि राजा होने पर भी भिखारी का वेष बना ले तो उसका राजत्व तिरोहित हो जाता है )-तो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि विज्ञान को आप सत् मानते हैं और उसका सत्त्व यही उसका संवेदन मानते हैं फिर उसकत तिरोभाव
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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