________________ प्रथमखण्ड का०-१ प्रामाण्यवाद 33 तथाहि-अनुत्पन्ने बाधके ज्ञाने परत्र बाध्यमानप्रत्ययसाधादप्रमाण्याशंका, तस्यां सत्यां तृतीयज्ञानापेक्षा, तच्चोत्पन्नं यदि प्रथमज्ञानसंवादि, तदा तेन न प्रथमज्ञानप्रामाण्यनिश्चयः क्रियते किंतु द्वितीयज्ञानेन यत् तस्याऽप्रामाण्यमाशंकितं तदेव तेनाऽपाक्रियते / प्रथमस्य तु स्वत एव प्रामाण्यमिति एवं तृतीयेऽपि कथंचित् संशयोत्पत्तौ चतुर्थज्ञानापेक्षायामयमेव न्यायः / तदुक्तम् एवं त्रिचतुरज्ञानजन्मनो नाधिका मतिः / प्रार्थ्यते तावतैवैकं स्वतः प्रामाण्यमश्नुते // इति [ श्लो०वा०सू०२, श्लो० 61] यत्र च दुष्टं कारणम् , यत्र च बाधकप्रत्ययः स एव मिथ्याप्रत्ययः, इत्यस्याप्ययमेव विषयः। चतुर्थज्ञानापेक्षा त्वभ्युपगमवादत उक्ता न तु तदपेक्षाऽपि भावतो विद्यते। हो सकता'- तो यह कथन युक्त नहीं है / जब अप्रमाणज्ञान उत्पन्न होता है तब उत्पत्ति के बाद बाधकज्ञान अथवा ज्ञान के उत्पादक कारणों में रहे हुए दोष का ज्ञान अवश्य होता है। इस से अप्रामाण्य का निश्चय होता है- परन्तु प्रमाणभूत ज्ञान में न बाधक ज्ञान होता है न कारण के दोष का ज्ञान होता है / इसलिये यहाँ कैसे अप्रामाण्य की शंका हो सकेगी? ( अथ तत्तल्यरूपे.... ) यदि आप कहते हैं-'अप्रमाणभूत ज्ञान के समान प्रमाणभूत ज्ञान में स्वरूपतः तुल्यता यानी ज्ञानसामान्यरूपता होने से उसमें भी बाधक प्रत्यय व कारण दोष प्रत्यय इन दोनों का उद्भव दिखाई पड़ता है अत: वहाँ भी अप्रामाण्य की शंका हो सकती है'- किन्तु यह शंका भी अयुक्त है अर्थात् बाधक नहीं है, क्योंकि उसी विषय में तीन चार ज्ञानों का सहारा लेकर प्रमाता को अप्रामाण्य की शंका दूर हो जाती है। निष्कर्ष, इसलिये प्रामाण्य का निश्चय स्वतः होता है / ( न च तदपेक्षातः.... 0 ) अगर आप कहें- “तीन चार ज्ञानों की अपेक्षा रख कर अप्रामाण्य की शंका * दूर करने द्वारा यदि प्रामाण्य का निश्चय मानते हैं तब तो प्रामाण्य स्वत: नहीं हुआ। तात्पर्य, प्रामाण्य का स्वतोभाव व्याहत हो गया, बाधित हो गया / अथवा यहाँ अगर आप कहें कि तीन-चार ज्ञानों की अपेक्षा मात्र सामान्यत: प्रादुर्भुत अप्रामाण्य की शंका दूर करने के लिये ही है इससे प्रामाण्य के स्वतस्त्व में कोई हानि नहीं है, तो भी उन ज्ञानों में भी अप्रामाण्य की आशंका के होने पर अन्य तीन चार ज्ञानों की अपेक्षा करने से अनवस्था तो अवश्य होगी।"-तो यह कथन युक्त नहीं है / जो ज्ञान संवाद कराते हैं वे केवल अप्रामाण्य की आशंका को दूर करते हैं। प्रामाण्य के निश्चय के लिये उनकी अपेक्षा नहीं होती। इस तथ्य को स्पष्टता इस प्रकार है [संवाद ज्ञान केवल अप्रामाण्य शंका का निराकरण करता है ] मानों कि किसी ज्ञान उत्पन्न होने पर उसका कोई बाधक ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ फिर भी उस ज्ञान में बाधित ज्ञानों के साथ सादृश्य होने के कारण अप्रामाण्य की शंका हुई, तब ऐसी शंका होने पर तृतीय ज्ञान की अपेक्षा रहती है और वह उत्पन्न हुआ। अब यदि वह तृतीयज्ञान प्रथम ज्ञान का संवादी हो, तो प्रथम ज्ञान के अप्रामाण्य की शंका दूर हो जाती है। यहाँ यह ध्यान में रखने योग्य है कि प्रथम ज्ञान ने जिस अर्थ को प्रकाशित किया है उसी को वह भी प्रकाशित करता है तब भी वह ततीय ज्ञान प्रथम ज्ञान के प्रामाण्य का निश्चायक नहीं है, किन्तु द्वितीय ज्ञान से प्रथम ज्ञान में जिस अप्रामाण्य की शंका हुई थी उसका निवर्तक है / 'जैसे अप्रामाण्य शंका का वह निवर्तक है वैसे प्रामाण्य का निश्चायक क्यों नहीं ?' ऐसी अगर शंका की जाय तब उत्तर यह है कि प्रथम ज्ञान के प्रामाण्य का