________________ 498 ... सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 - नापि परमाण्वादीनामनुमानान्नित्यत्वसिद्धरकार्यत्वस्य कार्यत्वविरुद्धस्य तेषु सद्भावात् ततो व्यावर्त्तमानः कार्यत्वलक्षणो हेतुबं द्धिमत्कारणत्वेनाऽन्वितः सिध्यति, कार्यत्वस्याऽबुद्धिमत्कारणत्वेन विरोधाऽसिद्धरंकुरादिष्वबुद्धिमत्कारणनिष्पाद्येष्वपि तस्य सम्भवात् / अथ नित्येभ्योऽकृतत्वादेव कार्यत्वं व्यावृत्तम् , उत्पत्तिमतां चांकुरादीनां बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वेन पक्षीकृतत्वान्न तहतोय॑भिचार आशंकनीय इति तेषु वर्तमानः कार्यत्वलक्षणो हेतुर्बुद्धिमत्कारणत्वेनाऽन्वितः सिद्धः, स्यादेतत-यदि पक्षीकरणमात्रेणैवाऽबुद्धिमत्कारणत्वाभावस्तेषु सिद्धः स्यात् , तथाऽभ्युपगमे वा पक्षीकरणादेव साध्यसिद्धे. हेतूपादानं व्यर्थम् / कार्यत्व के ग्राहकरूप प्रवृत्ति ही यहां प्रसिद्ध है। यदि विशिष्ट दशावाले परमाणु को छोडकर अन्य परमाणु से असंसृष्ट मुक्त परमाणु का विचार किया जाय तो ऐसे परमाणु प्रत्यक्ष में भासित नहीं होते हैं अत: उनमें बुद्धिमत्कारणाभावमूलक कार्यत्वाभाव का ग्रहण शक्य ही नहीं है। कोई कोई बुद्धिमत्कारणशून्य पदार्थों में कार्यत्वादि के न देखने मात्र से सकल बुद्धिमत्कारणशून्य पदार्थों में कार्यत्वादि का अभाव सिद्ध नहीं हो जाता / कारण, अन्यव्यक्तिसम्बन्धी चित्तवृत्ति यानी ज्ञान में स्वसम्बन्धी अदर्शन अनैकान्तिक है / तात्पर्य, बुद्धिमत्कारणशून्य वस्तु में कार्यत्व का स्वसम्बन्धी अदर्शन होने पर भो दूसरे लोगों को उसमें कार्यत्व का दर्शन हो सकता है / तथा, सभी लोगों को वहां कार्यत्व का दर्शन नहीं होता-ऐसी बात अल्पज्ञ नहीं कर सकता, अर्थात् सर्वसम्बन्धी अदर्शन असिद्ध है, अतः कहीं कहीं कार्यत्व के अदर्शन मात्र से विपक्षभूत परमाणु आदि में व्यापक रूप से कार्यत्वहेतु के व्यतिरेक की सिद्धि अशक्य है। [नित्य होने मात्र से कार्यत्व की निवृत्ति अशक्य ] __ यदि यह कहा जाय-परमाणु आदि में धर्मीसाधक अनुमान से ही नित्यत्व सिद्ध है। नित्यत्व से उनमें अकार्यत्व सिद्ध होगा और वह कार्यत्व से विरुद्ध है। अतः परमाणु में नित्यत्व के होने से कार्यत्वरूप हेतु उसमें नहीं रह सकेगा, इस प्रकार विपक्ष से कार्यत्वहेतु की व्यावृत्ति सिद्ध होने पर बुद्धिमत्कारणजन्यत्व के साथ उसकी अन्वयव्याप्ति सिद्ध हो जायेगी। तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कार्यत्व को अकार्यत्व के साथ विरोध होने के कारण खरविषाणादि में से उसको निवृत्ति मान लेने पर भी, अबुद्धिमत्कारणत्व के साथ कार्यत्व का विरोध सिद्ध न होने से अबुद्धिमत्कारणजन्य ऐसे नित्य परमाणु आदि में तो वह है ही, और अंकुरादि में बुद्धिमत्कारणजन्यत्व न होने पर भी वह हो सकता है / यदि ऐसा कहें-नित्य पदार्थ तो अजन्य होने से ही कार्यत्व की वहाँ से व्यावृत्ति सिद्ध हो जाती है, और अनित्य अर्थात् उत्पन्न होने वाले अंकुरादि का हमने पक्ष मे अन्तर्भाव कर लिया है क्योंकि उसमें बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व सिद्ध करने का हमारा उद्देश्य है। अतः अंकुरादि में कार्यत्व हेतु का अबुद्धिमत्कारणत्व के साथ सहभाव दिखा कर व्यभिचार की शंका करना ठीक नहीं है। इसलिये अंकुरादि में वर्तमान कार्यत्वरूप हेतु में बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्व के साथ अवयव्याप्ति सिद्ध हो जाती है ।-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा तब कह सकते थे यदि अंकुरादि का पक्ष में अन्तर्भाव कर देने मात्र से वहां अबुद्धिमत्कारणत्वाभाव सिद्ध हो जाता / यदि अंकुरादि को पक्ष कर देने मात्र से ही अबुद्धिमत्कारणत्वाभाव सिद्ध हो जाता तब तो फलित ऐसा होगा कि किसी भी वस्तु को पक्ष कर देने मात्र से ही वहाँ साध्याभाव की निवृत्ति अथवा साध्य की सिद्धि हो जाती है। अतः हेतु का प्रयोग निरर्थक हो जायेगा।