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________________ प्रथमखण्ड-का.०,१-वेदापौरुषेयविमर्शः न चैतदाशंकनीयम्-'एवंविधे प्रत्यनुमानेऽभ्युपगम्यमाने कादम्बर्यादीनामप्यपौरुषेयत्वसिद्धिः'यतस्तेषु बाणादीनां कर्तृणां निश्चयः, तथाहि-कालिदासकृतत्वेन कुमारसंभवादीनि काव्यानि अविगानेन स्मर्यन्ते। ___ अथ-'वेदेऽपि कर्तृ स्मरणमस्ति, तथा च केचिद् हिरण्यगर्भ वेदानां कर्तारं स्मरन्ति, अपरे प्रष्टकादीन् ऋषीन् / 'सत्यम् , अस्ति न त्वविगीतं यथा भारतादिषु, तथा छिन्नमूलं च / स्मरणस्यानुभवो मूलं, न च वेदे कर्तृ स्मरणस्य केनचित् प्रमाणेन मूलानुभवो व्यवस्थापयितुं शक्यः यदपि कर्तृ सद्धाचप्रतिपादकं वचनं कैश्चित कृतम-"हिरण्यगर्भः समवर्तताने" [ ऋग्वेद अष्ट०८ मं० 10, सू० 121 ] इत्यादि, तदपि मन्त्रार्थवादानां श्रयमाणेऽर्थे प्रामाण्याऽयोगांद न तत्सद्भावावेदकम् / तदुक्तम्-[ श्लो० वा० 7-367 ] "भारतेऽपि भवेदेवं कर्तृस्मत्या तु बाध्यते / वेदे तु तत्स्मतिर्या तु सार्थवादनिबन्धना // एतदप्ययुक्तम्-यतः किमत्र प्रतिसाधनत्वेन विवक्षितम् ? किमध्ययनशब्दवाच्यत्वम् ? उत कर्तुरस्मरणम् ? पूर्वस्मिन् पक्षे निविशेषणो वा हेतुरपौरुषेयत्वप्रतिपादकः ? कञस्मरणविशिष्टो वा ? प्रकृत हेतु में प्रकरणसमता दोष तदवस्थ है / कारण, अनुमान के लक्षण से परिपूर्ण प्रतिपक्षी अनुमान अपौरुषेयता का साधन करने में सज्ज है / अथवा प्रतिपक्षी अनुमान से पक्ष में साध्य बाधित होने का दोष होगा। प्रतिपक्षी अनुमान, श्लोकवात्तिक ग्रन्थ में इस प्रकार दिखाया है- “संपूर्ण वेदाध्ययन पूर्व पूर्व गुरुपरम्परागताध्ययन का अनुगामी है क्योंकि वह वेद का अध्ययन है, जैसे कि आधुनिक वेदाध्ययन [ जो गुरु परम्परा से ही हो रहा है ] / " [ पूर्वपक्ष चालु ] . . शंकाः-ऐसे प्रतिपक्षी अनुमान को मान लेने पर कादम्बरी आदि ग्रन्थ में भी अपौरुषेयत्वसिद्धि की आपत्ति होगी।' 1उत्तरः-यह शंका करने लायक नहीं है क्योंकि कादम्बरी आदि के तो बाणभट्ट आदि कर्ता सुनिश्चित हैं / निर्विवादरूप से कालिदास की कृति के रूप में लोग कुमारसंभवादि काव्यों को याद करते हैं। शंका:-वेद के कर्ता को भी याद किया जाता है-उदा० कोई हिरण्यगर्भ को वेदक रूप में याद करते हैं। दूसरे विद्वान् अष्टक आदि ऋषि को याद करते हैं / / / उत्तरः-ठीक है आपकी बात, किंतु महाभारतादि के कर्ता जैसे निर्विवाद हैं वैसे वेदकर्ता निर्विवाद नहीं है / अपरंच, वेदकर्ता का स्मरण विच्छिन्न मूल है / स्मरण का मूल है अनुभव / वेदकर्ता के स्मरण का मूलभूत अनुभव किसी भी प्रमाण से स्थापित नहीं किया जा सकता। तथा 'आगे हिरण्यगर्भ हआ था' इत्यादि जो वेदकर्ता सद्भाव प्रतिपादक-वचन किसी ने बनाया है वह भी मन्त्र विभाग और अर्थवाद में पठित वाक्यों जिस अर्थ में सुनते हैं उस अर्थ में प्रमाण न होने से कर्ता के सद्भाव का आवेदक नहीं हो सकते / कहा भी है-महाभारत में अपौरुषेयता हो सकती है किन्तु उसके कर्ता का स्मरण बाध पहुंचाता है। वेद के कर्ता का जो स्मरण है वह केवल अर्थवादमूलक है / [अनुभव मूलक नहीं है] / [ पूर्वपक्ष समाप्त ] ... [ वेदाध्ययन वाच्यत्व हेतु की समालोचना-उत्तरपक्ष ] यह शंका भी अयुक्त है-आपने जो प्रतिपक्षी अनुमान में हेतु प्रयोग किया है उसमें वेदाध्ययन
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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