________________ 592 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्च 'सावयवं शरीरं प्रत्यवयवमनुप्रविशंस्तदात्मा सावयव: स्यात् , तथा, पटवत् समानजातीयारब्धत्वाच्च तद्वद् विनाशवांश्च स्यात्' इति, तदपि न सम्यक् , घटादिना व्यभिचारात्-घटादिहि सावयवोऽपि न तन्तुवत प्राक्प्रसिद्धसमानजातीयकपालसंयोगपूर्वकः, मत्पिण्डात प्रथममेव सावयवत्वरूपाद्यात्मनः प्रादुर्भावादिति निरूपयिष्यमाणत्वात् / अपि च, यदि तदात्मनः कथंचिद्विनाशः प्रतिपादयितुमिष्टः समानजातीयावयवारब्धत्वात् तदा सिद्धसाधनम् , तदभिन्नसंसार्यवस्थाविनाशेन तद्रूपतया तस्यापि नष्टत्वात् / अथ सर्वात्मना सर्वथा नाशः, स घटादावप्यसिद्ध इति साध्यविकलो दृष्टान्तः / यदि च तदहर्जातबालात्मा प्रागेकान्तेनाऽसंस्तथाऽवयवैरारभ्येत तदा स्तनादौ प्रवृत्तिन स्यात, तदभिलाष-प्रत्यभिज्ञान-स्मरण-दर्शनादेरभावात् / 'तदारम्भकावयवानां प्राक्सतां विषयदर्शनादिकम्' इति चेत् ? तर्हि तेषामेव तदहर्जातवेलायां तन्वन्तराणामिव तत्र प्रवृत्तिः स्यानात्मनः, स्मरणाद्य भावात् / ' कारणगमने तस्यापि सर्वत्र सा स्यात् , “कारणसंयोगिना कार्यमवश्यं संयुज्यते" [ ] इति वचनात् न तस्य विषयानुभवाभावः, भेदैकान्ते चास्याः प्रक्रियायाः समवायनिषेधेन निषेधात् / / यदि कहें कि-वाय तो प्रत्यक्ष से हो नियत देश-काल-आकार से उपलब्ध होता है अतः आपकी आपत्ति का विषय प्रत्यक्षबाधित है-तो यह ठीक नहीं क्योंकि आप तो वाय परोक्ष होने का वर्णन करते आये हैं। [ देह में आत्मा की संकुचित वृत्ति मानने में बाधक ] तथा यह भी प्रश्न है कि आत्मा को यदि संकुचितरूप से देह के किसी एकभाग में पर्याप्त मानेंगे तो सारे देह में सुखादि गुणों की उपलब्धि होती है वह कैसे होगी ? गुणों की उपलब्धि विवक्षित देश में सर्वत्र होने पर भी यदि गुणी को उसके एक भाग में ही अवस्थित कहेंगे तो विवक्षित देश में सर्वत्र वायु के स्पर्शविशेष गुण की उपलब्धि होने पर भी उस देश के एक सूक्ष्म भाग में परमाणुरूप से ही वायु की सत्ता मानने की आपत्ति होगी। यदि कहें कि-आत्मा देह के एक भाग में होने पर भी सारे देह में घुमता रहता है इसलिये उसके गुणों की सारे देह में उपलब्धि होती है-तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि देह के सभी भागों में एक साथ ही सुखादि गुणों की उपलब्धि होती है। यदि कहें कि-एक साथ सुखादि गुणों की उपलब्धि यह वास्तव में शीघ्रता के कारण एकसाथ 3 का अभिमान मात्र है-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि दूसरे स्थलों में भी ऐसा तर्क प्रसक्त होगा। तात्पर्य यह है कि कोई ऐसा भी कहेगा कि घटादि अवयवी सर्व अवयवों में नहीं रहता किन्तु एक ही अवयव में रहता है, सीर्फ शीघ्रभ्रमण के कारण सभी अवयवों में वह उपलब्ध होता है। इसी तर्क से बौद्ध भी कल्पना करता हआ निरस्त हो जाता है। शरीर के एक एक अवयवों में एक और निरंश ज्ञान होने की बौद्ध के कथनानसार यदि प्रत्येक शरीर अवयवों में अनेक ज्ञान-सुखादि की कल्पना करेंगे तो, जैसे एक सन्तान से अन्य संतान में वासना का संक्रम नहीं होता उसी तरह एक अवयव में से अन्य अवयवों में सुखादि का संक्रम न हो सकेगा, फलतः 'मुझे सारे देह में सुख हुआ' यह समग्र देह में अनुगत एक सुखानुभव प्रतीति का विलोप हो जायेगा। यदि कहें कि-एक शरीर के भिन्न भिन्न अंशों में एक साथ होने वाले अनेक निरंश सुखसंवेदनों से एक परामर्शस्वरूपविकल्प के उत्पादन से उक्त प्रतीति के विलोप का दोष नहीं होगा तो यह ठीक नहीं क्योंकि यदि इस प्रकार अनेक उपादानों से एक परामर्शविकल्प का उद्भव माना जाय तो चार्वाक के मत में भी एकशरीररूप में प्रसिद्धिवाले : अनेक परमाणुओं के उपादानों से अनेक विज्ञान उत्पन्न होने पर भी एक परामर्शविकल्प का उद्भव