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________________ प्रथम खण्ड-का० १-सर्वज्ञवादः 209 रभावेऽपि गमकत्वस्य सिद्धत्वात् / शेषस्तु पूर्वपक्षग्रन्थोऽनभ्युपगमानिरस्त इति न प्रत्युच्चार्य दूषितः / अतोऽयुक्तमुक्तं 'सर्वज्ञवादिनां यथा तत्साधकप्रमाणाभावाद न तद्विषयःसद्व्यवहारः तथा तदभाववादिनों मीमांसकादीनां तदभावग्राहकप्रमाणाभावादेव न तदभावव्यवहारः' इति, प्रसंगसाधनस्य तदभावसाधकस्य समर्थितत्वात् / - अथ यद् अभ्यासविकलचक्षुरादिजनितं प्रत्यक्षं, तद् धर्मादिग्राहकं न भवति, इति प्रसंगसाधनात् सिध्यति, न पुनरन्यादृग्भूतम् , चोदनावदन्यादृशस्य धर्मग्राहकत्वाऽविरोधात् / ननु किं 1. तज्ज्ञानं प्रतिनियतचक्षुरादिजनितं धर्मादिग्राहकम् , 2. उताभ्यासजनितं, 3. आहोस्वित् शब्दजनितम् , 4. किंवाऽनुमानप्रभावितम् ? तत्र यदि चक्षुरादिप्रभवम् , तदयुक्तम् , चक्षुरादीनां प्रतिनियतरूपादिविषयत्वेन तत्प्रभवस्य तज्ज्ञानस्य धर्मादिग्राहकत्वाऽयोगात् / अत एव “यदि षड्भिः"........इत्याद्युक्तं दूषणमत्र पक्षे। [प्रसंगसाधन से सर्वज्ञभावसिद्धि का समर्थन ] सर्वज्ञविरोधी कहता है कि सर्वज्ञाभाव के साधन में सर्वज्ञवादी ने जो जो दूषण दिखाये हैं वे सब धूम से अग्नि अनुमान में भी समान है यह उपरोक्त चर्चा से सिद्ध हुआ इतना ही नहीं अपितु वक्तृत्व हेतुक हमारे अनुमान से सर्वज्ञ का अभाव भी अब सिद्ध होता है क्योंकि प्रसंगसाधन का जो लक्षण है-'व्याप्य का स्वीकार व्यापक के स्वीकार का अविनाभावी है ऐसा जहाँ दिखाया जाता है वह प्रसंगसाधन कहा जाता है'-इस प्रकार का प्रसंगसाधन का लक्षण जो आपको स्वीकृत है वह आपके हो मतानुसार हमारे उक्त अनुमान में मौजूद है। __सर्वज्ञवादी ने हमारे प्रसंगसाधन में प्रतिपादित हेतु में जो पक्षधर्मता के अभाव दोष का उद्भावन किया है वह तो दोषरूप न होने से हम उसका स्वीकार करके ही निराकरण ला देते हैं / कारण, स्वतंत्र साधन में पक्षधर्मताऽभाव दोष बन सकता है किन्तु प्रसंग साधन में हेतु पक्षधर्म न होने पर भी व्याप्ति बल के आधार पर स्वसाध्यप्रतिपादक हो सकता है। अवशिष्ट का पूर्वपक्ष है-उसमें जिस जिस विधान पर दोषारोपण किया गया है -वे विधान हमारे न होने से ही उक्त दोषों का विध्वंस हो जाता हैं, अत उन एक एक विधान को लेकर उस पर दिये गये दूषणों को टालने का प्रयास आवश्यक नहीं है / अतः सर्वजवादी ने अपने वक्तव्य के प्रारम्भ में जो कहा था-"सर्वज्ञवादी के पास जैसे सर्वज्ञ का साधक कोई प्रमाण न होने से उसके विषय में सद्व्यवहार शक्य नहीं, उसी प्रकार सर्वज्ञविरोधी मीमांसकों के पास सर्वज्ञ के अभाव का ग्राहक कोई प्रमाण न होने से उसके बारे में अभाव व्यवहार भी नहीं हो सकता-" इत्यादि, यह सब युक्तिविकल कह दिया है / सर्वज्ञाभाव की सिद्धि में प्रतिपादित प्रसंगसाधन का सविस्तर समर्थन किया गया है। [ धर्मादिग्राहकतया अभिमत प्रत्यक्ष के ऊपर चार विकल्प] मीमांसकों ने जो यह कहा था कि-'प्रत्यक्ष धर्मादिग्रहण का अनिमित्त है क्योंकि विद्यमानोपलम्भक है' इत्यादि, उसके ऊपर सर्वज्ञवादी शंका करें कि-योगानुष्ठानादि के अभ्यास विरह में जो नेत्रादिजन्य प्रत्यक्ष होता है वही धर्मादि का अग्राहक होता है-प्रसंगसाधन से केवल इतना ही सिद्ध किया जा सकता है। किन्तु जैसे चोदना यानी विधिवाक्य से जन्य ज्ञान उपर्यक्त प्रत्यक्ष से विलक्षण होता
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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