________________ 432 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ अपि चायं समवायः a कि समवायिनोः परिकल्प्यते b उताऽसमवायिनोरिति विकल्पद्वयम् / b तत्र यद्यसमवायिनोरिति पक्षः स न युक्तः, घट-पटयोरत्यन्तभिन्नयोस्तत्प्रसंगात् / न चाऽसमवायिनोभिन्नसमवायेन समवायित्वं तदभिन्नं विधातु शक्यम् , विरुद्धधर्माध्यासेन ताभ्यां तस्य भेदप्रसंगात् / नापि भिन्नम् , तत्करणे तयोः तत्सम्बन्धित्वानुपपत्तेः, भिन्नस्योपकारमन्तरेण तदयोगात् / उपकारेऽपि तद्भिन्नसमवायित्वकरणे पुनरपि तयोरसमवायित्वम् अन्यान्योपकारकरणे त्वनवस्था / a स्वत एव तु समवायिनोः किं समवायेन तद्धेतुना परिकल्पितेन ? अथ समवायेन तयोस्तव्यवहारः क्रियते / ननु यदि समवायिनोः स्वरूपं प्रत्यक्षादिप्रमाणगोचरस्तदा तत एव तद्व्यवहारस्यापि सिद्धेयर्थमेव तदर्थ तत्परिकल्पनम् / उत्तरपक्षी:-यह भी गलत है, क्योंकि पदार्थों का जो स्वभाव प्रत्यक्षसिद्ध है उसके लिये ऐसा कहा जा सकता है। समवायादि में स्वतः सत्त्व और अन्यपदार्थों में सत्तासमवाय के योग से सत्त्व-ऐसा प्रत्यक्ष से तो सिद्ध नहीं, फिर कैसे माना जाय? (जब कल्पना ही करनी है तब समवाय के द्वारा पदार्थों की सत्ता मान लेने के बदले समवायवत् पदार्थों को ही स्वतः सत्स्वभाव क्यों न मान लिया जाय ?) [समवाय दो समवायी का होगा या असमवायी का ? ] यह भी विचारना पड़ेगा कि-समवाय की कल्पना किस के सम्बन्धरूप में की जाती है ? a दो समवायी वस्तु के सम्बन्धरूप में या b दो असमवायी वस्तु के ? ये दो विकल्प हैं, उनमें से यदि (दूसरा पक्ष) b दो असमवायी वस्तु का समवाय मानेंगे तो वह अयुक्त है, क्योंकि इसमें अत्यन्तभिन्न घट और पट के भी समवाय सम्बन्ध की आपत्ति है / दूसरी बात यह है कि समवाय से दो असमवायी वस्तु मे समवायित्व का अभेद सम्बन्ध से आधान करना शक्य नहीं है क्योंकि तब तो असमवायित्व और समवायित्व ये दो विरुद्धधर्मों के अध्यास से उन दो असमवायी में से प्रत्येक वस्तु का भी भेदप्रसंग आ पडेगा। भेद सम्बन्ध से भी आधान करना शक्य नहीं है क्योंकि तब तो वह समवायित्व असमवायि दो वस्तु से भिन्न ही रहेगा, ऐसे भिन्न समवायित्व के करने पर असमवायि दो वस्तु में अन्योन्यसम्बन्धिता की उपपत्ति नहीं हो सकेगी। कारण, भिन्न पदार्थ कुछ उपकार के आधान विना दो वस्त में सम्बन्धिता का स्थापन नहीं कर सकता / यदि उपकार को मानेंगे तो भी यह प्रश्न तो खडा ही है कि उससे होने वाला समवायित्व उन दो असमवायिवस्तु से भिन्न होगा या अभिन्न ? यदि भिन्न मानगे तब तो उसमें असमवायित्व ही रहेगा, और उसके लिये फिर नया नया उपकार मानते रहेंगे तो अन्त कहाँ आयेगा? यदि समवाय से दो समवायी का ही सम्बन्धित होना मानेंगे तो वह न मानना ही श्रेयस्कर हैं क्योंकि जो विना समवाय भी स्वयं ही समवायी हैं वहाँ अतिरिक्त समवाय को सम्बन्धकारक रूप में कल्पना क्यों की जाय? पूर्वपक्षी:-इसलिये कि अतिरिक्त समवाय से उन दो समवायी का 'समवायी' ऐसा व्यवहार किया जा सके। उत्तरपक्षी:- अरे भाई ! जब दोनों समवायी का स्वरूप, प्रत्यक्षादिप्रमाण का विषय है तब उस प्रमाण से ही 'समवायी रूप से उनका व्यवहार सिद्ध हो जायेगा, अतः व्यवहार के लिये समवाय की कल्पना व्यर्थ है / सर्वत्र यथार्थव्यवहार प्रमाणाधीन ही होता है /