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________________ प्रथमखण्ड-का० १-परलोकवादः 355 तथा, यदि दर्शनावस्थायां स्पर्शनावस्था न प्रतिभातीति तदवस्थाव्याप्तिदर्शनज्ञानेनावस्थातुर्न ग्रहीतु शक्या, नन्वेवं तदप्रतिभासने तेन तदव्याप्तिरपि कथं ग्रहीतु शक्या? तदप्रतिभासने 'तत इदमवस्थातृरूपं व्यावृत्तम्' इत्येदपि ग्रहीतुमशक्यमेव / न च तद्विविक्तप्रतिभासादेव तदव्याप्तिगृहोतेवेति वक्तुयुक्तम् , तदप्रतिभासने तद्विविक्तस्यैवाऽग्रहणात् / न च तदव्याप्तिस्तस्य स्वरूपमेव' इति दर्शनज्ञानेन तत्स्वरूपग्राहिणा तदभिन्नस्वरूपा तदव्याप्तिरपि गृहीतवेति युक्तम् , तद्वयाप्तावप्यस्य सर्वस्य समानत्वात् / न चाऽबाधितकप्रत्ययविषयस्यात्मन एकत्वमसिद्धम् / न चास्यैकत्वाध्यवसायस्य किंचिद्वाधकमस्ति, तदबाधकत्वेन संभाव्यमानस्य प्रमाणस्य यथास्थानं निषेत्स्यमानत्वात् / उनमें 'एक और स्कूल' प्रतिभास नहीं होता उसी प्रकार पृथक पृथक नीलज्ञानपरमाणुओं का प्रतिभास ही होगा तो 'एक-स्थूल नीलज्ञानसंवेदन' होता है वह कैसे अब घटेगा जब कि प्रत्येक नीलज्ञानपरमाणुअवभास तो भिन्न भिन्न ही है ? यदि कहें कि-उन परमाणओं का स्वसंवेदनरूप अवभास भिन्न भिन्न होने पर भी अंशीभूत सकल प्रतिभासरूप नीलज्ञान तो एक ही है, उसमें भेद नहीं है तो यहाँ प्रश्न है कि 'यह नीलज्ञान एक और अभिन्न है' यही कैसे सिद्ध हुआ ? क्या अपने (अंशभूत) संवेदनों के अभेद से? या अपने आप ही? अगर संवेदनों के अभेट से उसको एक माना जाय तो वह यक्त नहीं है, क्यों कि (अंशभूत) संवेदनों का भेद तो पूर्वस्थापित ही है यानी सिद्ध ही है अतः उनके अभेद से उसका अभेद सिद्ध नहीं हो सकता / यदि अपने आप ही अभेद मानेंगे तो वह ठीक नहीं है क्योंकि नीलज्ञान स्वतः एकरूप है यह तो अब भी विवादास्पद होने से असिद्ध है। [ अवस्थाद्वय में अवस्थाता की अव्यापिता का ग्रह कैसे ? ] __यह भी सोचना चाहिये कि जब दर्शनावस्था में स्पर्शनावस्था का प्रतिभास न होने से, दर्शनज्ञान से स्पर्शनावस्था के अवस्थाता की दर्शनावस्था में व्याप्ति का ग्रह शक्य नहीं है-तो दर्शनावस्था में स्पर्शनावस्था का प्रतिभास न होने पर उस व्याप्ति का अभाव भी कैसे गृहीत हो सकता है ? [जैसे व्याप्ति के ग्रह में स्पर्शनावस्था का प्रतिभास आवश्यक है वैसे ही व्याप्ति-अभाव के ग्रह में भी स्पर्शनावस्था का प्रतिभास आवश्यक है ] स्पर्शनावस्था का प्रतिभास जब नहीं है तो इस वस्था का अवस्थाता स्पर्शावस्था के अवस्थाता से व्यावृत्त (भिन्न) है' यह भी जान लेना अशक्य ही है [ क्योंकि तद्भ दग्रह में प्रतियोगिविधया तद् का भान आवश्यक है ] यदि ऐसा कहें कि-'वहाँ दर्शनावस्था स्पर्शावस्था से विविक्त भिन्नरूप में ही भासित होती है अत एव स्पर्शावस्था के अवस्थाता की वहाँ अव्याप्ति भी अर्थतः गृहीत हो जाती है।'-तो यह भी अयुक्त है, क्योंकि जब तक स्पर्शावस्था का प्रतिभास नहीं मानेगे तब तक दर्शनावस्था में तद्विविक्तता भी अगृहीत ही रहेगी। यदि यह कहा जाय-'स्पर्शावस्था के अवस्थाता की अव्याप्ति तो दर्शनावस्था के स्वरूप में ही अन्तर्गत है, जब दशनावस्थाज्ञान अपने स्वरूप को ग्रहण करता है तो तदन्तर्गत उस अव्याप्ति को भी ग्रहण कर लेता है।'-तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि हम ऐसा भी कह सकते हैं कि दर्शनावस्था के स्वरूप में स्पर्शावस्था के अवस्थाता की व्याप्ति अन्तर्गत ही है, अतः अपने स्वरूप को ग्रहण करने वाला दर्शन-ज्ञान तदन्तर्गत व्याप्ति को भी ग्रहण कर ही लेता है....इत्यादि समानरूप से कहा जा सकता है।
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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