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________________ 506 - सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड-१ : भा० पृष्ठ 1 ] इति वचनात अर्थकार्य ज्ञानं तद्विषयमभ्युपगतम् , अर्थश्च क्रमभावी अतीतोऽनागतश्च / यच्च क्रमवज्ज्ञेयविषयं ज्ञानं तत् क्रमभावि, यथा देवदत्तादिज्ञानं ज्वालादिगोचरम् , क्रमवद्विज्ञेयविषयं चेश्वरज्ञानमिति स्वभावहेतुः। , “प्रसंगसाधनं चेदम् , तेनाश्रयासिद्धता हेतो शंकनीया / न च विपर्यये बाधकप्रमाणभावाद् व्याप्य-व्यापकभावाऽसिद्धर्न प्रसंगसाधनावकाशोऽत्रेति वक्तव्यम् , तस्य भावात् / तथाहि-यदि कमवता विषयेण तद ईश्वरज्ञानं स्वनिर्भासं जन्यते तदा सिद्धमेव क्रमित्वम् / अथ न जन्यते तदा प्रत्यासत्तिनिबन्धनाभावाद् न तद् जानीयात , विषयमन्तरेणापि च भवतः प्रामाण्यमभ्युपगतं हीयेत, अतीतानागते विषये निविषयत्वप्रसंगादिति विपर्ययबाधकसद्भावः सिद्धः / का विषय होते हुए वह विभुद्रव्य का विशेष गुण है-यह हेतु ईश्वर के ज्ञान में ही व्यभिचारी बन जायेगा क्योंकि वहाँ क्षणिकत्व नहीं है / - [विपक्षविरोधी विशेषण के विना व्यभिचार अनिवार्य ] . यदि यह कहा जाय-हेतु में 'ईश्वरज्ञानभिन्नत्व' विशेषण लगा देने पर वह हेतु ईश्वरज्ञान में नहीं रहेगा क्योंकि स्व में स्व का भेद नहीं रहता, अतः व्यभिचार नहीं होगा।-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति करने के लिये उसमें विशेषण ऐसा होना चाहिये जिसको विपक्ष के साथ विरोध हो, अन्यथा वह विशेषण विपक्ष से व्यावत्ति नहीं करा सकता / तो वहाँ विपक्ष है अक्षणिक वस्तु, विशेषण है ईश्वरज्ञानभिन्नत्व, अक्षणिकत्व और ईश्वरज्ञानभिन्नत्व इन में न तो सहानवस्थान रूप विरोध प्रसिद्ध है और न तो 'एक दूसरे को छोड कर रहना' ऐसा विरोध सिद्ध है / विपक्ष से अविरुद्ध विशेषण लगा देने मात्र से कभी हेतु की विपक्ष से व्यावृत्ति फलित नहीं हो जाती, वरना, जैसे तैसे विशेषण को लगा देने पर कोई भी हेतु व्यभिचारी नहीं रहेगा, क्योंकि जहाँ जहाँ व्यभिचार की सम्भावना होगी वहाँ वहाँ 'तद्भिन्नत्व' रूप विशेषण लगा देना सरल है। उपरांत, नैयायिक मत में, ज्ञान में अक्षणिकता का सम्भव ही नहीं है क्योंकि वात्स्यायनभाष्य के 'अर्थवत् प्रमाणम्' इस वचन से तो ज्ञान जिस अर्थ का कार्य हो वही उसका विषय होता है-ऐसा माना गया है। अर्थ तो सभी समानकालीन नहीं होते किन्तु क्रमिक होते हैं, अत एव कुछ अतीत होते हैं, कुछ अनागत (भावि) होते हैं / क्रमिक ज्ञेय अर्थ को विषय करने वाला ज्ञान भी वात्स्यायन वचनानुसार क्रमिक ही हो सकता है, उदा० ज्वालादि वस्तु को विषय करने वाला देवदत्तादि का ज्ञान क्रमिक ही होता है। ईश्वरज्ञान का भी यही स्वभाव है क्रमिक अर्थ को विषय करना, अतः इस स्वभावात्मक हेतु से उसमें भी क्रमवत्ता यानी क्षणिकता ही सिद्ध होगी। [प्रसंगसाधन में आश्रयासिद्धि दोष नहीं होता ] उपरोक्त हेतु में आश्रयासिद्धि की शंका करना व्यर्थ है क्योंकि हमें स्वतन्त्ररूप से ईश्वरज्ञान में क्षणिकता की सिद्धि अभिप्रेत नहीं है किन्तु पर को मान्य ईश्वरज्ञान में क्षणिकत्वरूप अनिष्ट का आपादन यानी प्रसंगसाधन ही करना है / यदि कहें कि-'ईश्वरज्ञान में क्रमिकज्ञेयविषयता मानने पर भी क्षणिकता के बदले अक्षणिकता को ही मानें तो उसमें कोई बाधकप्रमाण न होने से, क्षणिकत्व और क्रमिकज्ञेयविषयता में व्याप्य-व्यापक भाव ही असिद्ध होने से, उक्त प्रसंगसाधन निरवकाश है'-तो यह ठीक नहीं, क्योंकि विपर्यय की शंका में बाधक प्रमाण विद्यमान है / वह इस प्रकार:-यदि क्रमिक
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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