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________________ प्रथमखण्ड-का० १-ईश्वरकर्तृत्वे उत्तरपक्षः 489 अथ तत्समवायस्यापि सर्वत्र सर्वदा भावाद् नायं दोषः / न, तस्य नित्यत्व-व्यापकत्वे सत्यपि तद्विशेषणानामीश्वरज्ञान-प्रयत्न-चिकीर्षादीनामनित्यत्वात् अव्यापकत्वाच्च व्यतिरेकानुविधानमुपलभ्येत / अथ तज्ज्ञानादेरपि नित्यत्वाद नायं दोषः। सर्वदा ता कुरादिकार्योत्पत्तिः स्यात् / 'सर्वदा सहकारिणामसंनिधानाद् न' इति चेत् ? ननु तेऽपि तज्ज्ञानाद्यायत्तजन्मानः किं न सर्वदा सन्निधीयन्ते ? अथ 'नैव ते तदायत्तोत्पत्तयः' / तहि तैरेव कार्यत्वादिहेतुरनैकान्तिकः / 'तत्सहकारिणामपि सर्वदा स्वोत्पत्तिहेतूनां सकार्याणामसन्निधानाद् न सर्वदोत्पद्यन्ते' इति चेत् ? अनवस्था / तथा च अपरापरसहकारिप्रतीक्षायामेवोपक्षीणशक्तित्वात् तज्ज्ञानादेः प्रकृतकार्यकर्तृत्वं न कदाचिदपि स्यात् / अतः सुदूरमपि गत्वा क्वचिदवस्थामिच्छता नित्यत्वं सहकारिणाम् अतदायत्तोत्पत्तिकत्वं वाऽभ्युपगमनीयम् , तदायत्तोत्पत्तिकार्यस्यापि तज्ज्ञानादिव्यतिरेकेणाऽप्युत्पत्तिरभ्युपगन्तव्या, इति वृथा तत्परिकल्पना। नित्यत्वे वा पुनरपि सहकारिणां तज्ज्ञानादीनां च नित्यत्वात् सर्वदा कार्योत्पत्तिप्रसंगः। व्यापार तो सर्वदा सर्वत्र नहीं होता, अतः उसके व्यापार के व्यतिरेक का अनुसरण तो दिखाई देना चाहिये / [ समवाय सर्वदा सर्वत्र नहीं होता इस विकल्प में यह बात कही गयी है, वह सर्वत्र सर्वदा होता है इस विकल्प के ऊपर अब कहते हैं ] . [ समवाय सर्वदा-सर्वत्र होने पर भी अनुपपत्ति ] यदि कहें कि-समवाय भी सर्वत्र सर्वदा उपस्थित होने से व्यतिरेकाणुसरणाभाव का दोष नहीं होगा-तो यह ठीक नहीं, समवाय नित्य और व्यापक भले हो किन्तु ईश्वर का ज्ञान, प्रयत्न और ईच्छा तो अनित्य और अव्यापक होने से व्यतिरेकानुसरण के अभाव का दोष रहेगा ही। (यह अनित्य पक्ष में दोष कहा, अब) यदि कहें कि-उसके ज्ञानादि भी नित्य (और व्यापक) है अतः कोई दोष नहीं होगा-तो भो यह आपत्ति होगी कि अंकुरादि कार्य की भी हर हमेश उत्पत्ति होती रहेगी / यदि सहकारीयों का सनिधान सदा न होने से इस आपत्ति को टालना चाहे तो यह शक्य नहीं है, क्योंकि जब सहकारियों को भी ईश्वर के ज्ञानादि से ही जन्म लेना है तब ईश्वरज्ञानादि नित्य होने से अंकुरादि की उत्पत्ति में सहकारो कारण भी ईश्वरज्ञानादि से उत्पन्न हो कर सदा संनिहित क्यों नहीं रहेंगे ? यदि सहकारियों को ईश्वरज्ञानादि से उत्पन्न नहीं मानेंगे तो कार्यत्व हेतु उन सहकारियों में ही साध्यद्रोही बन जायेगा। यदि कहें-सहकारीवर्ग सदा संनिहित न होने का कारण यह है कि उसके अपने उत्पादक कारणों का कार्यसहित सदा संनिधान नहीं होता, अर्थात् सहकारीयों का कारण सदा संनिहित न होने से कार्यभूत (-अंकुरादि के,) सहकारी भी सदा संनिहित नहीं रहते-तो यहाँ अनवस्था दोष होगा, क्योंकि सहकारीयों के हेतु को भी ईश्वरज्ञान से ही जन्म लेना है तो वे क्यों सदा उत्पन्न नहीं होंगे इस प्रश्न के उत्तर में आपको फिर से यह कहना पडेगा कि सहकारियों के हेतुओं की उत्पत्ति में भी उनके सहकारोकारण सदा संनिहित नहीं रहते है इसलिये / तो इस प्रकार अनवस्था दोष आयेगा, फलत: ईश्वरज्ञानादि तो अंकुरादि के पूर्व पूर्व कारणों को उत्पन्न करने में ही क्षीणशक्तिवाला हो जाने से कभी भी अंकुरादि कार्य का कर्तृत्व तो ईश्वर में आयेगा ही नहीं / इसलिये कितने भी दूर जा कर अनवस्थादोष का अन्त लाने के लिये (A) कहीं तो सहकारीयों को नित्य मान लेना ही पडेगा, अथवा (B) कुछ सहकारीयों को ईश्वर ज्ञान के विना ही उत्पन्न मान लेना होगा। इस प्रकार जब दूसरे
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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