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________________ 428 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 कुत एतत् ? तस्मिन् सति भावाद' इति चेत् ? प्राकाशादावपि सति तस्य भावात् तत्कार्यता किं न स्यात् ? अथ 'तदभावेऽभावात् तत्कार्यत्वम्' / तन्न, नित्य-व्यापित्वाभ्यां तस्य तदयोगात् / तदात्मन्युस्कलितस्य तस्य दर्शनात् तत्कार्यते'ति / किमिदं तस्य तत्रोत्कलितत्वम् ? 'तत्र समवेतत्वं तस्य' इति चेत् ? नन्विदमेव पृष्टं-किमिदं समवेतत्वं नाम ? 'तत्र समवायेन वर्तनम्' इति चेत् ? ननु कि a व्याप्त्या समवायेन वर्तनम् b पाहोस्विदव्याप्त्या? ___ यदि a व्याप्त्या तदाऽस्मदादिज्ञानवैलक्षण्यं यथा तज्ज्ञानस्याऽदृष्टस्यापि कल्प्यते तथाऽकृष्टोत्पत्तिषु वने वनस्पत्यादिषु घटादौ कर्म-कर्तृकरणनिर्वयं कार्यत्वमुपलब्धमपि चेतनकर्तृ रहितमपि भविष्यतीति कार्यत्वलक्षणो हेतुर्बुद्धिमत्कारणपूर्वकत्वे साध्ये स्थावरैर्व्यभिचारीति लाममिच्छतो मूल का ज्ञान यदि उससे भिन्न ( पृथक् ) और अकार्यरूप है तो 'उस की' यहाँ जो छट्ठी विभक्ति से सम्बन्ध द्योतित होता है वह नहीं घटता / [ 'बुद्धि' शब्द को 'उस की ( ईश्वर की ) बुद्धि' इस अर्थ में मत् ( मतुप् ) प्रत्यय लगाने से 'बुद्धिमत्' शब्द बनता है ] पूर्वपक्षी:-वह बुद्धि ईश्वर का गुण है अतः 'वह बुद्धि उस की है' ऐसा षष्ठी विभक्ति के प्रयोग से कह सकते हैं। उत्तरपक्षीः-यह बात अयुक्त है, जब वह बुद्धि ईश्वर से भिन्न और अकार्यभूत है तो वह ईश्वर का ही गुण है, आकाशादि का नहीं ऐसी व्यवस्था ही नहीं की जा सकती। पूर्वपक्षीः-समवायनामक सम्बन्ध से ऐसी व्यवस्था हो सकेगी। . उत्तरपक्षीः-यह ठीक नहीं है, ईश्वर और उसके ज्ञान से वह समवाय भिन्न होगा तो वही दोष लगता है कि समवाय भिन्न होने पर वह व्यापक होने से सर्वत्र वर्तमान है अतः ,उससे यह व्यवस्था होना शक्य ही नहीं है कि ज्ञान केवल ईश्वर से ही सम्बन्ध रखे / पूर्वपक्षी:- वह ज्ञान ईश्वरात्मा का कार्य है अतः वह ईश्वरात्मा का ही गुण हो सकता है / यदि प्रश्न करें कि वह ईश्वरात्मा का ही कार्य कैसे? तो उत्तर यह है कि ईश्वर के होने पर ही ऐसा ज्ञान उत्पन्न होता है। उत्तरपक्षीः-ईश्वर के समान ही, आकाशादि के होने पर ही होने वाला वह ज्ञान आकाश का ही कार्य क्यों न माना जाय ? 'आकाश के अभाव में उस का अभाव होने से वह ज्ञान आकाश का कार्य नहीं है' ऐसा नहीं कह सकते, क्योंकि आकाश नित्य एवं व्यापक द्रव्य होने से उसका कहीं भी कभी अभाव नहीं होता। पूर्वपक्षी:-'ज्ञान ईश्वरात्मा में ही उत्कलित है ऐसा देखने से वह ईश्वर का ही कार्य माना जायेगा। उत्तरपक्षीः- 'ज्ञान ईश्वर में ही उत्कलित है' इसमें उत्कलित का क्या अर्थ है ईश्वर में ही समवेत है' ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि यही तो हमारा प्रश्न है कि 'ईश्वर में ही समवेत है' इसका क्या अर्थ ? पूर्वपक्षी:-समवाय सम्बन्ध से ईश्वर में रहना / उत्तरपक्षीः-यहाँ दो प्रश्न हैं-a ईश्वर में समवायसम्बन्ध से ज्ञान व्यापक होकर रहता है b या व्यापक न होकर ? ( अर्थात् संपूर्ण ईश्वरात्मा में रहता है या उसके किसी एक भाग में ?)
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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