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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अथ मोक्षावस्थायां चैतन्यस्याप्युच्छेदान्न कृतबुद्धयस्तत्र प्रवर्त्तन्त इत्यानन्दरूपात्मस्वरूप एव मोक्षोऽभ्युपगन्तव्यः / यथा तस्य चित्स्वभावता नित्या तथा परमानन्दस्वभावताऽपि / न चात्मनः सका. शाच्चित्स्वभावत्वमानन्दस्वभावत्वं वाऽन्यत् , अनन्यत्वेन श्रुतौ श्रवणात् "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म" [बृहदा० उ०प्र०३, ब्रा०९ मं० 28 ] इति / तस्य तु परमानन्दस्वभावत्वस्य संसारावस्थायामविद्या पुनर्जन्म क्यों नहीं होता ऐसे प्रश्न का यह मानकर यदि समाधान किया जाय कि तत्त्वज्ञानी को मिथ्याज्ञानमूलक संस्कार रूप सहकारी कारण न होने से, पूर्व कर्मों के रहने पर भी नया जन्म नहीं लेना पडता है-तो यह समाधान ठीक नहीं है। क्योंकि कर्म स्वयं कार्यरूप है, जब तक उसका फल - - उत्पन्न नहीं होगा तब तक उसका विनाश भी नहीं होगा तो वे कर्म नित्य अवस्थित हो जाने की आपत्ति होगी / अर्थात् तत्त्वज्ञानी कभी कर्ममुक्त नहीं हो सकेगा। [नित्यनैमित्तिक अनुष्ठान का प्रयोजन ] यदि पूछा जाय कि जब आप तत्त्वज्ञान के बाद भावि धर्म-अधर्म की उत्पत्ति रुक जाने का कहते हैं तो फिर तत्त्वज्ञानी को नित्य (संध्योपासनादि) और नैमित्तिक (ग्रहण के दिन दानादि) कृत्यों को करने की जरूर क्या ? तो उत्तर यह है कि नित्य और नैमित्तिक कृत्य न करने पर जो नुकसान होने वाला है यानी अशुभ कर्मबन्ध होता है उससे बचने के लिये नित्य-नैमित्तिक कृत्य ज्ञानी को भी करना होता है / कहा है "नित्य और नैमित्तिक कृत्यों से पापकर्म का क्षय करता हुआ (साधक आत्मा) ज्ञान को निर्मल करता हुआ, अभ्यास से ज्ञान को परिपक्व करें।” “अभ्यास से ज्ञान परिपक्व हो जाने पर मनुष्य कैवल्य को प्राप्त करता है, काम्य और निषिद्ध कार्यों में प्रवृत्ति के रुक जाने से केवल होता है।" तथा कहा है कि-"नुकसान से बचने के लिये नित्य-नैमित्तिक कृत्य करते रहें, काम्य और निषिद्ध कृत्यों में मुमुक्षु की प्रवृत्ति नहीं होती है।" पूर्वोक्त अनुमान से इस प्रकार बुद्धि आदि विशेषगुणों के उच्छेद विशिष्ट आत्मस्वरूप मुक्ति का स्वीकार करने पर यदि कोई ऐसा कहें कि-विपर्ययज्ञान के क्रमश: नाश से तत्त्वज्ञान द्वारा उत्पन्न होने वाली मूक्ति तत्त्वज्ञान का कार्य होने से स्वयं भी (अनित्य%D) विनाशी होने की आपत्ति आयेग तो यह ठीक नहीं क्योंकि विशेषगुणोच्छेद तो ध्वंसात्मक है, इसलिये वह सदा स्थायी ही होता है और उससे उपलक्षित आत्मा स्वयं ही नित्य होता है। अनित्य वही होता है जो कार्यभूत होते हुए वस्तु (भाव)स्वरूप हो / ध्वंस कार्य होने पर भी भावात्मक नहीं है और आत्मा भावात्मक होने पर भी कार्यभूत नहीं है अत: अनित्यत्व की आपत्ति कहीं भी नहीं है। यह भी नहीं कह सकते कि-'बुद्धि आदि गुणों का नाश होने पर गुणवान् आत्मा भी नष्ट हो जायेगा'-क्योंकि गुण और गुणी का न्यायमत में तादात्म्य नहीं होता जिस से कि गुण के नाश से गुणी के नाश की आपत्ति हो / [ मुक्ति परमानन्दस्वरूप-वेदान्तपक्ष ] मोक्षावस्था में सुख की सत्ता मानने वाले प्रतिवादि यहाँ नैयायिक के समक्ष वाद प्रस्तुत करते कहते हैं कि-मोक्षावस्था में यदि चैतन्य का उच्छेद माना जाय तो फिर वुद्धिमान लोग मोक्ष के लिये प्रवृत्ति ही नहीं करेंगे, अतः आनन्दमय आत्मस्वरूप को ही मोक्ष मानना चाहिये / आत्मा में चैत
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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