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________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 अर्थतथात्वपरिच्छेदरूपा च शक्तिः प्रामाण्यम् / शक्तयश्च सर्वभावानां स्वत एव भवन्ति, नोत्पादककारणकलापाधीनाः / तदुक्तम्-'स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् / नहि स्वतोऽसती शक्तिः कर्त मन्येन पार्यते // 1 // [ श्लो० वा० स०-२-४७ ] एतच्च नैव सत्कार्यदर्शनसमाश्रयणादभिधीयते किंतु य कार्यधर्मः कारणकलापेऽस्ति स एव कारणकलापादुपजायमाने कार्ये तत एवोदयमासादयति यथा मृत्पिण्डे विद्यमाना रूपादयो घटेऽपि मृत्पिण्डादुपजायमाने मृत्पिण्डादिरूपद्वारेणोपजायन्ते। ये पुनः कार्यधर्माः कारणेष्वविद्यमाना न ते कारणेभ्यः कार्ये उदयमासादयति तत एव प्रादुर्भवन्ति किंतु स्वतः, यथा घटस्यैवोदकाहरणशक्तिः / तथा विज्ञानेऽप्यर्थतथात्वपरिच्छेदशक्तिः चक्षुरादिषु विज्ञानकारणेष्वविद्यमाना न तत एव भवति किंतु स्वत एव प्रादुर्भवति / किंचोक्तम्-'आत्मलाभे हि भावानां कारणापेक्षिता भवेत् / लब्धात्मनां स्वकार्येषु प्रवृत्तिः स्वयमेव तु // 1 // ' [ श्लो० वा० सू०-२-४८ ] तथाहि-मृत्पिडदण्डचनादि घटो जन्मन्यपेक्षते / उदकाहरणे तस्य तदपेक्षा न विद्यते // 2 // [ तत्त्वसंग्रहे-२८५० ] इति / / नियतत्व रूप (देखीये पृष्ठ 4-50 12) अपने साध्य के साथ व्याप्ति वाला सिद्ध हो जाता है अर्थात् साध्य 'स्वस्वरूपनियतत्व' यह व्यापक और हेतु 'अन्यभावानपेक्षत्व' यह व्याप्य सिद्ध होता है। सिद्ध व्याप्तिक होने से ही हमारे हेतु में न विरुद्धता नामक हेत्वाभास है और न अनैकान्तिकत्व नामक हेत्वाभास है / इसलिये निर्दोष हेतु के द्वारा हमारे साध्य की सिद्धि निर्बाध हो जाती है / [शक्तिरूप होने से प्रामाण्य स्वतः ही है ] इसके अतिरिक्त प्रामाण्य इस प्रकार भी स्वतःसिद्ध है: - यह दिखाई पड़ता है-प्रामाण्य यह विज्ञान की शक्ति है और विज्ञान की यह शक्ति अर्थतथात्वपरिच्छेदरूप है अर्थात् पदार्थ के तात्त्विकभाव के प्रकाशनरूप है / यह शक्ति विज्ञानोत्पत्ति के साथ साथ संबद्ध हो जाती है। क्योंकि सर्व पदाथ की शक्तियाँ स्वतः ही होती है, किन्तु वे पदार्थ के साथ अपने सम्बन्ध में पदार्थ के उत्पादक कारणों के समूह की अपेक्षा नहीं करती। 'स्वतः सर्व.........' इस श्लोकवात्तिक की कारिका में भी यही कहा गया है कि-'समस्त प्रमाणों में प्रामाण्य का सम्बन्ध स्वतः होता है यह समझ लेना चाहिये। क्योंकि पदार्थ में जो शक्ति स्वतः विद्यमान नहीं है उसको वहाँ उत्पन्न करने में अन्य कोई भी समर्थ नहीं है। [शक्ति का आविर्भाव कारणों से नहीं होता ] इस वस्तु का यानी शक्तियों की उत्पत्ति के स्वतस्त्व का कथन सत्कार्यवाद का आश्रय करके नहीं करते हैं क्योंकि हम यह नहीं मानते कि प्रामाण्यशक्ति की अभिव्यक्ति होती है। किन्तु, शक्ति का आविर्भाव स्वतः होता है यह कहने का हमारा अभिप्राय यह है-जो कार्यधर्म कारणसमूह में रहता है वही कार्यधर्म, कारणसमूह से कार्योत्पत्ति होने पर उसी कारणधर्म से कार्य में अभिव्यक्त हो जाता है। जैसे, मिट्टी के पिण्ड में जो रूप आदि रहते हैं वे रूप आदि, मिट्टी के पिण्ड से घटोत्पत्ति होने पर घड़े में भी मिट्टी के रूपादि द्वारा उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिये वे परतः उत्पन्न हैं। किन्तु कार्यों का जो धर्म कारणों में विद्यमान नहीं है वे कारणों के द्वारा कार्य का उदय होने पर कारणों से ही अभिव्यक्त नहीं होते हैं किन्तु स्वतः ही अभिव्यक्त होते हैं, जैसे, उसी घट में जल लाने की शक्ति / घट में रूपादि धर्म कारणगुण से उत्पन्न होते हैं, इसी प्रकार उसी घट में जलाहरण शक्ति कारणगुण से उत्पन्न नहीं
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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