________________ सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 यच्चात्रोच्यते-''तस्यामवस्थायां विज्ञानाभावे तदवस्थातः प्रच्युतस्योत्तरकालमीदृशी संवित्तिनं भवेत् 'न मया किंचिदपि चेतितम्' स्मति_यमनुभवपूविका, अतो येनानुभवेन सता न किचिच्चेत्यते तस्यामवस्थायां तस्यावश्यं सद्भावोऽभ्युपगन्तव्यः"- एतत् सुव्याहृतम् , 'न किचिच्चेतितं मया' इति ब्र बता a वस्त्ववेदनं वोच्येत, b स्वरूपावेदनं वा? वस्त्ववेदने सकलप्रतिषेधो न युक्तः / b स्वरूपावेदनं तु स्वसंवेदनाभ्युपगमे दूरोत्सारितम् / तस्मादिदानीमेव मनोव्यापारात् तदवस्थाभावी सर्वानवगमः संवेद्यते। विजातीय से उत्पत्ति जैसा कुछ भी नहीं है।" इसके सामने नास्तिक कहता है कि उनके मत में प्रथम बात तो यह है कि किस पदार्थ का कौन सदृश' भाव है और कौन 'तादृश' भाव है यह विवेक सामान्यदर्शी पुरुषों की ज्ञानशक्ति का अगोचर है। कदाचित् कार्य को देख भेद का विवेक होने का कहा जाय तो यह भी सुलभ नहीं है क्योंकि सदृश तादृश भाव. की कोई स्पष्ट व्याख्या ही नहीं है / अतः 'विजातीय से उत्पत्ति का कोई दोष नहीं है' यह परिहार असार है। '' [ समानजातीय से उत्पत्ति का नियम नहीं-नास्तिक ] किसी का जो यह कहना है कि 'प्रत्येक पदार्थ सजातीय उपादानकारण से ही उत्पन्न होता है, धूम का भी उपादान कारण अग्नि नहीं है किन्तु काष्ठ में छिपे हुए सूक्ष्म धूमाणुसमुदाय ही है ।'किन्तु इस कथन में सजातीयता का स्पष्टीकरण नहीं होता। अत: यह प्रश्न होगा कि a समानरूपादि वाले पदार्थ से रूपादि की उत्पत्ति को सजातीयोत्पत्ति कहते हैं ? या b धूमत्व जिसमें विद्यमान वयवों से धम की उत्पत्ति को सजातीयोत्पत्ति कहते हैं ? a पर्व विकल्प में यह आपत्ति होगी कि अश्व से धेनु की उत्पत्ति कदाचित् हो जाय तो उसे विजातीयोत्पत्ति नहीं कह सकेंगे क्योंकि धेनु की उत्पत्ति समानरूपादिवाले अश्व से ही हो रही है। b दूसरे विकल्प में पुन: दो प्रश्न हैं-धूमत्व जो लोक प्रसिद्ध है उससे सजातीयता मानते हैं या आप जो कुछ धूम त्व की पारिभाषिक व्याख्या करें तदनुसार सजातीयता मानते हैं ? धूमत्व यह पारिभाषिकव्याख्या का तो विषय नहीं है क्योंकि वह सर्वजन प्रसिद्ध वस्तु है, केवल शास्त्रप्रसिद्ध नहीं है / लोक में जिसका धूमत्वरूप से व्यवहार होता है वैसा धमत्व काष्ठादि अन्तर्गत धमाण समदाय में तो कभी व्यवहृत नहीं होता अतः लौकिक धमत्व से भी सजातीयोत्पत्ति की बात असंगत है / जो कोई सर्वलोक प्रसिद्ध व्यवहार होता है उसका अनुसरण तो ताकिकों को भी करना ही चाहिये। निष्कर्ष:-'सजातीय से ही उत्पत्ति' का सिद्धान्त असार है। [ उत्तरकालीन स्मृति से सुषुप्ति में विज्ञान सिद्धि अशक्य-नास्तिक] यह जो कहा जाता है कि-यदि सुषुप्ति अवस्था में विज्ञान का सर्वथा अभाव होगा तो सुषुप्तिदशा पूर्ण हो जाने के बाद यह जो संवेदन होता है 'मुझे कुछ पता ही नहीं चला' यह नहीं हो सकेगा। तात्पर्य यह है कि यह जो संवेदन होता है वह स्मरणात्मक है, अनुभवरूप नहीं है [ क्योंकि सुषुप्तिकालीन विषय का वर्तमान संवेदनरूप है। ] अतः यह स्मृति अवश्य सुषुप्ति अन्तर्गत अनुभव पूर्वक ही होनी चाहिये / इस लिये, जिस अनुभव की विद्यमानता में बाह्य किसी भी पदार्थ का पता ही नहीं चलता उस अनुभव का [ जिसको सौगत मत म आलयविज्ञान कहा जाता है-J सद्भाव सुषुप्ति अवस्था म अवश्य ही मानना चाहिये ।-इस कथन के ऊपर कटाक्ष करता हुआ नास्तिक