________________ प्रथमखण्ड-का०१-परलोकवाद: 325 नन्वहमितिप्रत्ययः सर्वलोकसाक्षिको नैवाऽपह्नोतु शक्यः, अनपह्नवे सविषयः निविषयो वा? निविषयता प्रत्ययानामबाधितरूपाणां कथम् ? सविषयत्वेऽपि प्रमात्रप्रतिभासे किंविषयोऽयं प्रत्ययः ? -'न प्रत्ययापह्नवः न चाऽस्य निविषयता किंतु देहादिव्यतिरिक्तो (क्त) विषयत्वेनावभासमान आत्माऽस्य न विषयः, न च ज्ञातृत्वेनावभासमान' इत्युच्यते / कस्तहि विषयः ? शरीरामात ब्रमः। तथाहि 'कृशोऽहं-स्थलोऽहं-गौरोऽहम्' इति शरीराद्यालम्बनैः प्रत्ययैरस्य समानाधिकरणताऽवसीयते। __नन्वेवं सुखादिप्रत्ययरप्यहंकारस्य समानाधिकरणता-सुख्यह-दुख्यहम् इति वा, अतो न देहविषयता / यच्चोच्यते 'गौरोऽहमित्यादिसामानाधिकरण्यदर्शनाच्छरीरालम्बनत्वम्' इति, तत्राप्येतद्विचार्यम-गौरादीनां शरीरादिव्यतिरिक्तानामनहंकारास्पदत्वं दृष्टं तद्वच्छरीरादिगतानामाप युक्तं व्यवस्थापयितुम् / तथा च वात्तिककृतोक्तम्-"न ह्यस्य द्रष्टुर्यदेतद् मम गौरं रूपं 'सोऽहम्' इति भवति प्रत्ययः, केवलं मतुब्लोपं कृत्वैवं निर्दिशति" [ न्यायवा० पृ० 341 पं० 23 ] संगत नहीं है / जैसे: 'मैं नेत्र से घट को देखता हूँ' इस बृद्धि में गोलक का नेत्ररूप से भास होता है ? या दूसरे किसी का? यह प्रश्न हैं। यदि गोलक को ही नेत्र कहा जाय तो कोई भी अन्धा नहीं कहलायेग | गोलक तो होता ही है। गोलक भिन्न नेत्ररश्मि को आप नेत्रेन्द्रिय कहते हो तो वह हमें विना कोई प्रमाण स्वीकार्य नहीं हो सकता / कदाचित् नेत्र के रश्मि होते हैं यह मान लें तो भी उनकी प्रतीति किसी को नहीं होती। अत: नेत्र की प्रतीति मानने वाले तो घटदर्शनकाल में केवल अर्थशन्य शब्द ही बोल देते हैं-'मैं नेत्र से घट को देखता हूँ। वास्तव में वहां नेत्रेन्द्रिय प्रतीति का विषय नहीं है। जैसे नेत्रेन्द्रिय के लिये केवल शब्दोच्चार ही होता है उसी तरह 'प्रमाता और फलभूत प्रमिति का अपरोक्ष अवभास होता है' ये भी केवल अर्थहीन शब्दोच्चार ही प्रतीत होता है। वास्तव में वे प्रमाता आदि नेत्रेन्द्रिय वत् प्रतीति का विषय नहीं होते / जैसे कि न्यायवेत्ता भी यही मानते हैं कि इन्द्रिय सक्रिय होने पर शरीर से व्यवच्छिन्न यानी भिन्नरूप में एकमात्र विषय का ही अवभास होता है, आत्मा या संवेदन का नहीं। इसीलिये तो 'आत्मा का अपरोक्ष अवभास क्या है' ऐसा पूछने पर वे न्यायवेत्ता भी मौन रहकर ही उसका उत्तर देते हैं, क्योंकि आत्मा के अवभास का स्पष्ट व्यपदेश =प्रतिपादन शक्य ही नहीं है / तात्पर्य कर्ता का अवभास मानना युक्तिविहीन है। [अहमाकारप्रतीति की आत्मविषयकता की स्थापना ] प्रात्मवादी:-'अहम्' आकार प्रतीति में सभी लोग साक्षि है अतः उसका निषेध अशक्य है। जब निषेध अशक्य है तो इस प्रतीति को सविषय मानेंगे या निविषय ? जो प्रतीतियां अबाधित हैं उनको निविषयक कैसे मानी जाय ? यदि सविषय मानी जाय तो यह प्रश्न है कि प्रमाता=बोधकर्ता का प्रतिभास अहमाकार प्रतीति में नहीं मानते तो इस प्रतीति का विषय क्या है ? नास्तिकः-हम इस प्रतीति का न तो निषेध ही करते हैं, न तो उसे निविषय कहते हैं, इतना ही कहना है देहादि से भिन्नतया विषयरूप में भासमान आत्मा इस प्रतीति का विषय नहीं है, बोधकर्ता के रूप में भी आत्मा यहाँ भासित नहीं होता है। आत्मवादीः-तो इस अहमाकार प्रतीति का विषय कौन ?