________________ 450 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 सुपरिनिश्चितरूपा बाधाऽयोगात प्रमाणम् / सा च अक्षान्वय-व्यतिरेकानुसारितया प्रत्यक्षम् / तथाहिविस्फारितलोचनस्य घट-पटादिषु ( ? स्व) रूपमारूढां सत्तामुहिलखन्ती 'सत् सत्' इति प्रतीतिः, तदभावे च न भवतीति तदन्वय-व्यतिरेकानुविधायितया कथं न प्रत्यक्षम् ? तस्माद् बहुषु व्यावृत्तेषु तुल्याकारा बुद्धिरेकतामवस्यति / यच्चात्र विभिन्नेषु घटादिषु प्रतिनियतमेकमनुगतस्वरूपं सैव जातिः। अथ व्यक्तिव्यतिरिक्ता जातिरुपेयते, न च व्यक्तिदर्शनवेलायां तद्रूपसंस्पर्शविषयव्यतिरिक्तवपुरपरमनुगतिरूपं प्रतिभाति तत् कथं तत् सामान्यम् ? नैतदस्ति, यस्मादगृहीतसंकेतस्यापि तनुभृतः प्रथममुद्भाति वस्तु, द्वितीये तुल्यरूपतामनुसरति बुद्धिः, क्वचिदेव न सर्वत्र / प्रतिपत्त्यन्यता च सर्वत्र भेदव्यवहारनिबन्धनं तुल्यदेश-कालेऽपि रूप-रसादौ च / प्रतिपत्त्यन्यता च जातावपि विद्यते इति कथं न सा भिन्नाऽस्ति ? तथाहि-व्यक्त्याकारविवेकेन विशदमनुगतिरूपता भाति तद्विवेकेन च व्यावृत्तरूपतेति कथं व्यक्तिस्वरूपाद भिन्नावभासिनी जातिभिन्ना नाभ्युपगमविषयः ? हुयी नहीं दिखाई देती, क्योंकि सर्वकाल में सभी लोग घट पटादि में 'सत्-सत्' इस रूप से व्यवहार करते आये हैं / जिस प्रतीति से व्यवहार सिद्ध होता है उसको तो प्रतिवादी भी प्रमाण मानते ही हैं / जैसे कि प्रतिवादिओं ने ही कहा है-'प्रतीति का प्रामाण्य व्यवहार को अधीन है।' इस से यह सिद्ध होता है कि व्यावत्तरूपग्राहक प्रतीति से जिस का वेदन नहीं होता ऐसे साधारणरूप का उल्लेख करने वाली अत्यन्त निश्चयारूढ अनुगताकार प्रतीति प्रमाणभत है क्योंकि उसका कभी बाध नहीं होता। अब जो यह अनुगताकार प्रतीति है वह इन्द्रियों के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करती है अतः उसे प्रत्यक्षात्मक ही मानना होगा / जैसे देखिये-खुले नेत्रवाले को घटपटादिस्वरूप पर आरूढ सत्ता का उल्लेख करने वाली 'सत-सत्' ऐसी प्रतीति होती है और आंख मंद देने वाले को नहीं होती है, इस प्रकार जब यह अनुगताकार प्रतीति नेत्रेन्द्रिय के अन्वय-व्यतिरेक का अनुसरण करती है तो उसे प्रत्यक्ष क्यों न माना जाय ? अत: निष्कर्ष यह है कि भिन्न-भिन्न अनेक वस्तु में तुल्याकारावगाही बुद्धि एकरूपता का निश्चय करती है। भिन्न भिन्न घटादि में जो यह नियत रूप से एक अनुगतस्वरूप भासता है वही जाति कही जाती है / [ जाति की प्रतीति व्यक्ति से भिन्न होती है ] प्रतीपक्षीः-आप जाति को व्यक्ति से अलग मानते हैं, किन्तु व्यक्ति को जब देखते हैं तब व्यक्तिस्वरूप संस्पर्श यानी ज्ञान का जो विषय, उससे अलग स्वरूप वाला कोई भी अनुगतरूप भासमान नहीं होता तो फिर उस अनुगतरूप को अलग सामान्य रूप में कैसे माना जाय ? ___ नैयायिकः-ऐसा नहीं है, सामान्य में 'यही सामान्य है' ऐसे संकेत का जिसे भान नहीं है ऐसे ज्ञाता को भी पहले तो वस्तु का स्वरूप भासित होता है और बाद में वस्तु की तुल्य रूपता को बुद्धि ग्रहण करती है, हाँ ऐसा सर्वत्र नहीं किन्तु कभी कभी ही होता है यह बात अलग है / भेदव्यवहार का प्रयोजक सर्वत्र प्रतीतिभेद ही होता है जैसे कि समानकालीन एवं समानदेशवर्ती रूप और रस में प्रतीतिभेद के अलावा और कोई भेदप्रयोजक नहीं है। यदि व्यक्ति और सामान्य के विषय में भी उक्त रीति से प्रतीतिभेद मौजूद है तो जाति को भिन्न हो क्यों न माना जाय ? स्पष्ट ही बात है कि व्यक्तिस्वरूप से अतिरिक्तरूप में अनुगतरूपता का स्पष्ट भान होता है और अनुगतरूपता से अति