SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 192 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 न च तदभावाभिधायकं किंचिद् वेदवाक्यं श्रूयते, केवलं तद्भावाऽऽवेदकवेदवचनोपलब्धिरविगानेन समस्ति अपाणिपादो जवनो ग्रहीता पश्यत्यचक्षुः स श्रुणोत्यकर्णः / / स वेत्ति विश्वं नहि तस्य वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम् / / [श्वेताश्व० 3.19] तथा हिरण्यगर्भ प्रकृत्य "सर्वज्ञः०" इत्यादि / न च स्वरूपेऽर्थे तस्याऽप्रामाण्यम् , तत्र तत्प्रामाण्यस्य प्रतिपादयिष्यमाणत्वात / तन्न शब्दादपि तदभावसिद्धिः / नाऽप्युपमानात् तदभावावगमः, यत उपमानोपमेययोरध्यक्षत्वे सादृश्यालम्बनमुदेति, अन्यथा तस्माद् यत् स्मर्यते तत् स्यात् सादृश्येन विशेषितम् / प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् // [श्लो. वा उपमा०.३७] इत्यभिधानात् प्रत्यक्षेणोपमानोपमेययोरग्रहणे उपमेयस्मरणाऽसम्भवात् कथं स्मर्यमाणपदार्थविशिष्टं सादृश्यम् सादृश्यविशिष्टं वा स्मर्यमाणं वस्तु उपमानविषयः स्यात् ? तस्मादिदानींतनोपमानभूताशेषपुरुषप्रत्यक्षत्वम् , उपमेयाशेषान्यकालमनुष्यवर्गसाक्षात्करणं चावश्यमभ्युपगमनीयम , तदभ्युपगमे च स एव सर्वज्ञ इति कथमुपमानात् तवभावावगमो युक्तः ? अतो यदुक्तम्-[ श्लो.वा.सू. 2.113 ] 'यज्जातोयः प्रमाणस्तु यज्जातीयार्थदर्शनम् / दृष्टं सम्प्रति लोकस्य तथा कालान्तरेऽप्यभूत् // ' तन्निरस्तम् , उपमानस्योक्तन्यायेनात्र वस्तुन्यवृत्तः। [ सर्वज्ञ वेदवचन से प्रसिद्ध है ] दूसरी बात यह है कि-सर्वज्ञाभाव का प्रतिपादक तो कोई भी वेदवाक्य नहीं है, बल्कि दूसरी ओर उसके सद्भाव का उद्घोषक अनेक वेदवचन निर्विवाद उपलब्ध होते हैं। जैसे कि श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा है ''जिस को हाथ-पैर नहीं है, जो जवन एवं ग्रहोता है, तथा विना चक्षु ही देखता है, विना श्रोत्र ही सुनता है, जो समग्र विश्व को जानता है किन्तु उसको जानने वाला कोई नहीं है, ऐसे पुरुषाग्रणी को महान कहते हैं। ___ तथा हिरण्यगर्भ को उद्देश कर कहा गया है कि 'वह सर्वज्ञ है सर्वविद् है' इत्यादि। इन वेदवचनों को यथाश्रुत अर्थ में अप्रमाण नहीं कह सकते क्योंकि इनका प्रामाण्य हम आगे चल कर बताने वाले हैं / अत: फलित होता है कि शब्द प्रमाण से सर्वज्ञ का अभाव सिद्ध नहीं है / [ उपमानप्रमाण से सर्वज्ञाभाव की सिद्धि दुष्कर] उपमानप्रमाण से भी सर्वज्ञ का अभाव नहीं जाना जा सकता, कारण, उपमान और उपमेय का प्रत्यक्ष प्रसिद्ध हो तब सादृश्य के निमित्त से उपमान प्रमाण का उद्भव होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो “गवय के प्रत्यक्ष से जिस धेनु का स्मरण होता है वही धेनु गवयमादृश्य से विशिष्टरूप में, अथवा उस धेनु से विशिष्ट सादृश्य -उपमान प्रमाण का प्रमेय (यानी ग्राह्य) होता है" इस कथनानुसार प्रत्यक्ष से उपमान और उपमेय का ग्रहण नहीं होगा तो उपमेय का स्मरण जो कि आवश्यक है उसका संभव न होने से स्मृति में उपस्थित धेनु से विशिष्ट सादृश्य अथवा सादृश्य से विशिष्ट ही
SR No.004337
Book TitleSammati Tark Prakaran Part 01
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorAbhaydevsuri
PublisherMotisha Lalbaug Jain Trust
Publication Year1984
Total Pages696
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy