________________ 232 सम्मतिप्रकरण-नयकाण्ड 1 तत्र नाद्यः पक्षः, अतीन्द्रियस्याप्यतीतकालादेग्रहणाभ्युपगमात् / नाप्यविद्यमानत्वात् , भाविधर्मादेरिवातीतकालादेरविद्यमानत्वेऽपि प्रतिभासस्य भावात् / अथाऽविशेषणत्वाद्धर्मादेरप्रतिभासः, तदप्यसंगतम्-सर्वदापदार्थजनकत्वेन द्रव्य-गुण-कर्मजन्यत्वेन च धर्मादेः सर्वपदार्थविशेषणभावसंभवाद अतीतातीन्द्रियकालादेरिव तस्यापि विशेष्यग्रहणप्रवृत्तचक्षुरादिना ग्रहणसंभव इति कथं धर्म प्रत्यनिमित्तत्वप्रसंगसाधनस्य तद्विपर्ययस्य वा संभवः ? तथा, प्रश्नादि-मन्त्रादिद्वारेण संस्कृतं चक्षुर्यथा कालविप्रकृष्टपदार्थग्राहकमुपलभ्यते तथा धर्मादेरपि यदि ग्राहकं स्यात् तदा न कश्चिद् दोषः / __ अपि च, अनालोकान्धकार व्यवहितस्य मूषिकादेर्नक्तंचरवृषदंशादेश्चक्षुर्यथा ग्राहकमुपलभ्यते तथा यद्यतीन्द्रियातीताऽनागतधर्मादिपदार्थसाक्षात्कारि कस्यचित् तदेव स्यात् तदाऽत्रापि को दोषः ? न च जात्यन्तरस्यान्धकारव्यवहितरूपादिग्राहकं चक्षुदृष्टं न पुनर्मनुष्यधर्मण इति प्रतिसमाधानमत्राभिधातुयुक्तम् , मनुष्यधर्मणोऽपि निर्जीवकादेव्यविशेषादिसंस्कृतं चक्षः समद्रजलादिव्यवहितपर्वतादि. वर्ती पदार्थ को विशेष्यरूप में और पूर्वदर्शन को विशेषणरूप में ग्रहण करता हुआ प्रत्यभिज्ञान उदित होता है वह नहीं होगा, क्योंकि यह नियम है कि "विशेषण की अग्राहक बुद्धि किसी वस्तु को विशेष्यरूप में ग्रहण नहीं करती-जैसे कि दंडरूप विशेषण की अग्राहक बुद्धि दंडी को विशेष्यरूप में ग्रहण नहीं करती। [ तात्पर्य दंड का ग्रहण होने पर ही यह 'दंडी पुरुष है' इस बुद्धि का जन्म होता है। ] अब प्रस्तुत में विचार करें तो यह स्पष्ट है कि धर्मादि में इस न्याय का संभव नहीं है, अर्थात् धर्मादि किसी वस्तु के विशेषणरूप में गृहीत नहीं होता है अतः किसी भी पदार्थ को नेत्रादि से देखते समय धर्मादि का विशेषणरूप में ग्रहण शक्य नहीं है / [ अत एव सर्वज्ञ की संभावना भी समाप्त हो जाती है ] / इस पर व्याख्याकार कहते हैं कि धर्मादि का नेत्रादि से क्यों ग्रहण नहीं होता? क्या वह अतीन्द्रिय हैं इस लिये ? अथवा वे विद्यमान नहीं है इस लिये ? या फिर वे किसी का विशेषण नहीं है इसलिये? [ तीनों विकल्पों की अयुक्तता ] तीन में से पहला विकल्प अनुचित है क्योंकि कालादि पदार्थ जो अतीन्द्रिय हैं उसका नेत्रादि से ग्रहण तो आप भी मानते ही हैं / दूसरा विकल्प, धर्मादि अविद्यमान होने से अग्राह्य हैं-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे अविद्यमान होने पर भी भूतकालादि का प्रतिभास होता है वैसे अविद्यमान भी भविष्यकालीन धर्मादि का प्रतिभास हो सकता है-उसमें कोई बाधक नहीं है। तीसरे विकल्प में "धर्मादि यह किसी भी वस्तु के विशेषणभूत न होने से धर्मादि का प्रतिभास शक्य नहीं"-यह बात भी असंगत है। कारण, सर्वपदार्थ का साधारण जनक होने से तथा द्रव्य गुण और कर्म से जन्य होने के कारण यह धर्मादि प्रत्येक पदार्थ का विशेषण बन सकता है इस में कोई संदेह नहीं है / तथा अतीत अतीन्द्रिय कालआदि का जैसे अपने विशेष्य के विशेषणरूप में ग्रहण होता है उसी प्रकार अपने विशेष्य को ग्रहण करने में प्रवृत्त नेत्रादि द्वारा धर्मादि का विशेषणरूप में ग्रहण का भी पूर्ण संभव है / तब फिर धर्मादि के प्रति अनिमित्तत्व के कथन द्वारा प्रसंगसाधन और विपर्यय के प्रदर्शन का अवकाश ही कहाँ रहा? तदुपरांत यह भी कहा जा सकता है कि प्रश्नादि (अंजनविशेषया विद्यादि) तथा मन्त्रादि द्वारा नेत्र का संस्कार करने पर जैसे काल से विप्रकृष्ट पदार्थों का भी नेत्रादि से ग्रहण संभव है उसी प्रकार धर्मादि का भी नेत्रादि से ग्रहण संभव माना जाय तो कोई दोष नहीं है।