Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद क्रूरसिंहादयोजीवा मुक्तवैराः परस्परम् ।
एकत्र संबसन्त्युच्चैः परमानन्दनिर्भराः ॥१४॥ ___ अन्वयार्थ-(ऋ रसिंहादयो जीवा) हिंसक प्राणी सिंह व्याघ्रादि प्राणी (मुक्त वैराः) वैर विरोध से रहित (परस्पर) आपस में (एकत्र) एक साथ मिल कर (उच्चैः) अत्यन्त (परमानंद निर्भगः) परम आनन्द से भरे हुए प्रसन्न चित्त (संवसन्ति) निवास कर
रहे हैं।
भावार्थ हे जनपालक ! महाक र, जाति विरोधी एक दूसरे के घातक प्राणी भी प्रीति से निवास कर रहे हैं। सिंह और गाय, सर्प-नेबला, चहा विद्याल, मयूर-सर्प, कुत्ताबिल्ली आदि बड़े प्रेम से हिलमिल कर क्रीडा कर रहे हैं । नाचना-कूदना, खाना पोना सब निर्भय होकर कर रहे हैं मानों कोई विशेष उत्सब ही मना रहे हैं ।।६४।।
नानादेवविमानाद्यैर्जयनादेस्समन्ततः ।
दिव्यदेवाङ्गना वृन्दैगिरि स्वर्गायते प्रभो ॥६५॥
अन्वयार्थ -(प्रभो) हे प्रभो ! (समन्ततः) चारों ओर नभ और भूमण्डल पर (नानादेव विमानाचं जयना दै:) अनेकों देव विमानों के आगमन और उनमें स्थित देवों द्वारा किये जाने वाले जय जय ध्वनि से (दिव्य देवाङ्गना वृन्दैः) उत्तम श्रेष्ट देवाङ्गानाओं के समूह से परिव्याप्त होकर (गिरिः) वह विपुलाचल पर्वत (स्वर्गायते) मानों स्वर्ग रूप ही हो गया है।
भावार्थ हे नराधिप ! नाना प्रकार के वस्त्रालङ्कारों से अलंकृत देव और देवियों नभोमण्डल से जय जय धोष करते आ रहे हैं । ऐसा प्रतीत होता है मानों ममस्त स्वर्ग का वैभव यहीं भूमण्डल पर आ गया है। वह विपुलाचल स्वर्ग लोक सदृश हो गया है । सर्वत्र जिनेन्द्र प्रभु श्री वीर भगवान का ही यशोगान गूज रहा है । देव-देवियाँ नाना प्रकार के दिव्य द्रव्यों से वीतराग प्रभु को पूजा, भक्ति, स्तुति कर रहे हैं । दिव्य भोगों को सजकर यहाँ आकर सव नृत्य गान कर जिन महिमा प्रकट करने में तल्लीन हैं । वस्तुत: जिनभक्ति कर्म कलङ्क प्रक्षालन में समर्थ हैं ।।१५।।
इतिश्रवणमात्रेण श्रेणिको मगधेश्वरः । सिंहासनात्समुत्थाय गत्वा सप्तपदानि च ॥६६॥ जय त्वं वीरनाथेति संबवन् हर्षनिर्भरः। दत्वातस्मै महादानं तां दिशं सम्प्रणम्य च ॥१७॥ आनन्द दायिनी भेरी दापयामास स त्वरम् । तन्निनादेन भव्योधाः प्रोल्लसन्मुखपंकजाः ॥१८॥