Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र दशम् परिच्छेद ]
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धारण कर, (पञ्च) पांच (समिती:) समितियाँ रूपी (सज्जनानाम् ) सत्पुरुषों की (मङ्गतिम्) सङ्गति, मित्रता (विधाय) करवे (च) और (पञ्चेन्द्रियमनः) पांचों इन्द्रियों और मन इन (वैरिपड्वर्गसञ्चयम) छ वैरियों के समूह का (अन्तस्थ) वशीकर (च) और (तिनोगुप्तीः) तीनों गुप्तियों को (सुगृप्तीः) सम्यकप्रकार गुप्त कर (षडावश्यककृतवर्म) छह आवश्यक कृत कर्मो रूप (वस्त्रम ) वस्त्र को (इटम ) मजबूत (कृत्वा) करके (यतीश्वर:) उनयतापजन ने गद सन! अमावस्याग कि . मी शत्र के विनाज के लिए (परमागमशस्त्रौष) परमागमकथित शस्त्र समूह को (नथा) एवं (लोचम्) केशोत्पाटन (अचेलत्वम ) वस्त्रत्याग (अस्नानम ) स्नानत्याग (भूमिनिद्रया) भ शयन (अदन्तधावन) दातून नहीं करना (स्थितिभाजनम् । एक जगह खड़े हो आहार लेना (तथंव) उसी प्रकार (एककः नाम) एक ही बार भोजन आहार लेना इन शस्त्रों को (चक्र) तैयार किया।
भावार्थ उन मुनि पुङ्गव श्रीपाल महाराज ने अपने अनादिकाल से पीछे लगे कर्मशत्र को आमूल नाण करने का दृढ़ निश्चय किया । संघमरूपी संग्रामभूमि में युद्ध करने के लिए उन्होंने अठाईस (२८) भूलगुणों को मुह सेना और शस्त्र तैयार किये । विजय का इच्छक सुभट मालस्य का त्याग कर सतत सावधानी से शत्र पर वार कर अपनी रक्षा करता हमा उसे परास्त कराता है। इसी प्रकार श्री १०८ धोपाल यतीश्वर जी ने प्रमाद का त्यागकर आगमानुसार अपनो सेना और शस्त्र एवं कवच तैयार किये । उन्होंने महान्, श्रष्ठतम सुबहसुभट स्वरूप पञ्चमहाव्रत रूपी सामन्तों को तैयार किया। पाँच समितियाँ-१ ईयर्यासमिति (चार हाथ आगे देखकर जीवरक्षा करते हुए साधारण गमन करना २. भाषा-(प्रिय, हित, मिन वचन बोलना) ३. एषणा (छियालीस दोष टाल कर शुद्ध कूल में यथाविधि पाहार करना) ४. आदाननिक्षेपण रामिति (भूमि और वस्तु को देख शोधकर रखना या उठाना-पिच्छिका से परिमार्जन कर धरना-लेना) ५, व्युत्सर्ग (निशिच्छद्र, जीव जन्तु रहित, प्रकाशयुक्त, भूमि में मल मुत्रादि क्षेपण करना) । इन पांच समितियों को साथी बनाया । अर्थात् इनकी सङ्गति की । सज्जन की सङ्गति से दुस्साव्य भी कार्य सुसाध्य हो जाते हैं । अत: समितिरूपी सज्जनों का साथ लिया। राज्य के षड्वर्ग शत्रु होते हैं उसी प्रकार मुक्तिराज्य भी छह शत्र है ५. इन्द्रियाँ
और ६. मन । उन भोपाल मूनी पवर ने इन छहों शत्रुओं का पूर्णत: दमन किया अपने प्राधीन कर लिया। तीनों-मन, वचन, काय को सम्यक् प्रकार वश कर तीनगुप्तियों को प्राप्त किया । पडावश्यक क्रियारूपी वस्त्र धारण किये। पांच महाव्रत, पाँचसमिति और तीनगुप्ति ये कृतिकर्म कहलाते हैं इनको धारण पालन और संबमन किया । तथा शेषगुण १. लौच करना-अपने हाथों से मस्तक के केश, दाढी-मूछ के केशों को उखाडना) २. अचेलत्व-वस्त्रमात्र का सर्वथा त्याग-नग्न रहना) ३. अस्नान (स्नान नहीं करना) ४. भूमिशयन (पिछली रात्रि में एक ही करबट से भूमि में सोना)५. अदन्तधावन-(दातुन नहीं करना-दन्त धावन नहीं करना) ६. स्थितिभोजन--(एक ही स्थान पर खड़े होकर आहार ग्रहण करना) ७. एक भुक्तिदिन
(एक ही बार निरन्तराय पाहार ग्रहण करना) । इस प्रकार परमागम में कर्मसंहार के लिए ये २८ मूलगुण हो परमपने शस्त्रसमूह कहे गये हैं । इन मुनिराज ने इनको प्रमाद हित होकर रात्परता से सञ्चित किया और पूर्ण वीरत्व के साथ कर्मशत्रुओं का संहार करने लगे ।।१०२ से १०५॥