Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 590
________________ ५५४ ] [ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद ( निश्चल: ) निश्चल ( जरामरणवर्जितम् ) वृद्धापन, मरण रहित (मोक्षम् ) मुक्ति की ( सम्प्राप्तवान् ) प्राप्त किया । भावार्थ-सकलज्ञ परम वीतरागी श्रीपाल जिनको देशना प्रारम्भ हुयी । गन्धकुटी में विराजमान जिनने षट्प्रकार द्रव्यों के साथ सप्त तत्वों का निरूपण किया। जीब अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये सात तत्व, पुण्य-पाप और उनका शुभाशुभ फल, जीव, पुद्गल, धर्म, धर्म, आकाश और काल मे छह द्रव्य हैं। तथा भूत, वर्तमान और भविष्य ये तीन काल इन सबका विस्तृत रूप से निरूपण किया । भव्य प्राणियों के हितार्थ आठ कर्म और उत्तर १४८ प्रकृतियों को निरूपित किया। चार प्रकार की गतियों का तथा जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश ये पाँच अस्तिकाय, छह लेश्याएं + कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म, शुक्ल इन छह को उन जिनेन्द्र ने सम्यक् प्रकार उपदिष्ट किया। इस प्रकार उन प्रभु ने तीनों लोकों का स्पष्ट और विस्तृत वर्णन कर रत्नत्रय का स्वरूप बतलाया । रत्नत्रयधारी भव्यात्माओं को सम्बोधित करते हुए चिरकाल तक नाना दिग्देशों में बिहार क्रिया तथा भव्यो के भयङ्कर मोह और श्रज्ञान जाल को नाश करते हुए सुरासुरों से पूजित हुए । रत्नत्रयमयी मोक्षमार्ग को बतलाया । अचल, चिरसुख देने वाला मुक्तिमार्ग प्रकाशित करते हुए वे प्रभु चौदहवें गुणस्थान में जा पहुंचे । अपने ज्ञान का प्रसार कर यहाँ शुक्लध्यान के चौथे पाये व्युfore क्रियाप्रतिपाति को लेकर अघातिया कर्मों की पच्चासी (८५) प्रकृतियों का सफाया किया । द्विचरम समय में ७२ और चरम समय १३ प्रकृतियों को विध्वस्त कर शिवालय में पदार्पण किया जहाँ न जरा है न मरण क्योंकि इनके कारण है कर्म और कर्मों को जड़ से जला कर भस्म कर दिया फिर बिना कारण कार्य कहाँ से हो ? कारण के प्रभाव में कार्य भी नहीं होता । द्विचरम समय में विनष्ट होने वाली प्रकृतियाँ -- ५ शरीर, ५ बंधन, ५ सङ्घात, ६ संहनन, ३ श्राङ्गोपाङ्ग, ६ संस्थान, ५ व २ गन्ध, ५ रस, स्पर्श, स्थिरअस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर - दुःस्वर, देवगति- देवगत्यानुपूर्वी, प्रशस्त प्रप्रशस्त-विहायोगति, दुभंग निर्माण, अयशस्कीति, अनादेय, प्रत्येक, अपर्याप्त, मगुरुलघु, उपघात, परघात उच्छ हास, साता या श्रमाला में से कोई एक और मीच गोत्र । चरम समय में नष्ट होने वाली १३ प्राकृतिथाँ - साता साता में कोई एक मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय, सुभग, श्रस, वादर, पर्याप्त आदेय, यशस्कीर्ति, तीर्थङ्कर, मनुष्यायु, उच्च गोत्र और मनुष्यागत्यानुपूर्वी । इन ८५ प्रकृतियों का नाश कर जीव, अचल, अविनाशी, अनन्त सुखरूप स्थान शिवपुर में वास करता है। वहीं जा पहुँचे कर्मयोगी श्रीपाल ज्ञानयोगी बन कर द्रव्यकर्म भाव और नो कर्म समूह को मूलोमुन्लन कर | १२० से १२६ ।। एकेन समयेनोच्चैरुर्ध्वगामी स्वभावतः । सम्यक्त्वादि गुणोपेतस्त्रैलोक्य शिखरे स्थितः ।। १२७ ।। तत्र भुंक्त निराबाधं सौख्यं वाचामगोचरम् । अनन्तं शाश्वतं स्वात्मजं वृद्धिहासदूरगम् ॥ १२८ ॥ संसिद्धो मे समाराध्यो विशुद्धो विश्ववन्दितः । पारंप्राप्तेभवाम्बोधः प्रदद्यात् सिद्धिमुत्तमम् ॥ १२६॥

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