Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद
केचिन्नृपास्त्रियः काश्चित् स्त्रोत्वंछित्वा सुदर्शनात् । जग्मुः स्वर्गं यथायोग्यं तपोभिर्जनितं शुभात् ॥१३३॥ काश्चिन्तार्यास्तपः कृत्वा तत्फलेनाभन्दिवि । सौधर्माऽच्युतान्त्येव देव्यो रुषादि भूषिताः ।। १३४।।
अन्वयार्थ - ( तथा ) श्रीपाल जी के समान ( सती मदनसुन्दरी) शीलव्रती मदन सुन्दरी ने ( चिरम) बहुत काल ( तपः ) तपश्चरण ( कृत्वा) करके ( धर्म ध्यानेन ) धर्म ध्यान से उत्पन्न (पुण्यतः ) पुण्य से (स्त्रीलिङ्गिकाकष्टम् ) स्त्रीपर्यायजन्य कष्ट को ( छित्वा ) छेदकर ( महाविभवसंयुतः ) महान् वैभव सम्पन्न ( महाशुक) महाशुक्र नाम के स्वर्ग में ( सुरेन्द्रः ) इन्द्र (अमृत) हुयी (तत्र ) वहाँ (चिरम् ) दीर्घकाल ( सुखम) सुख ( भुक्त्वा ) भोगकर (महीतले ) मध्यलोक में (समागत्य ) आकर ( दिव्यम ) उत्तम (नरत्वम् ) नरपयर्याय ( आपाद्य ) प्राप्त कर (पुनः) फिर (तपः ) तप ( कृत्वा) करके ( सुधीः) बुद्धिमान (सः) बह ( क्रमात् ) क्रम से ( कृत्स्नकर्माणि) सम्पूर्ण कर्मों को ( हत्वा ) नाश कर (निर्वृतिम ) निर्वाण ( यास्यति ) जायेगी ( काश्चित् ) कुछ ( स्त्रियः ) रानियाँ या अन्य ( स्त्रीत्वम् ) स्त्रीपर्याय को ( सुदर्शनात् ) सम्यग्दर्शन से ( छित्वा ) नाश कर (च) और (केचित) कुछ (नृपाः ) राजा-तपस्वी (तपोभिजनितम) अपने-अपने तप उत्पन्न (शुभात्) पुण्यकर्म से ( यथायोग्यम् ) यथायोग्य ( स्वगंम ) स्वर्ग को ( जग्मुः ) गये ( काश्चित् ) कुछ ( नार्याः ) तपस्विनियां (तपः ) तपश्चरण ( कृत्वा) करके ( तत्फलेन ) उस तप के फल से ( सौधर्माद्यच्युतान्त्यैव ) सौधर्म स्वर्ग से ले श्रच्युतस्वर्य पर्यन्त ही यथायोग्य स्वर्ग में ( रूपादिभूषिता ) रूप लावण्य से सुशोभित ( देव्याः ) देवियाँ (अभवन् ) हुयी ।
मावार्थ - महासती मदनसुन्दरी आर्यिका दीक्षाधारण कर निर्वाञ्छ तप तपने लगीं । जिस प्रकार एक विशिष्ट श्राविका धर्म का पालन किया उसी प्रकार अब यति धर्म पालन में पूर्ण सन्नद्ध हुयी। बहुत काल सम्यक्त्वपूर्वक उग्रतपश्चरण किया । अन्त कषाय और शरीर सल्लेखना पूर्वक पार्थिव शरीर का त्याग किया। भयङ्कर कष्टदायिनी निद्य स्त्रीपर्याय स्त्रीलिङ्ग का छेदन कर धर्मध्यान पूर्वक महाशुकनामा दशवें स्वर्ग में 'इन्द्र' उत्पन्न हुयी । उपपाद जन्म से अन्तर्मुहूर्त काल में ही सौम्य, सर्वाङ्ग सुन्दर, सर्वाभूषण सज्जित मनोहर इन्द्र हो गई । कुछ अधिक १६ सागर प्रमाण आयु पर्यन्त स्वभाव से प्राप्त विषय सुखों को भोगकर वहाँ च्युत हो मर्त्यलोक में यहाँ पुरुष पर्याय धारण कर संसार शरीर, भोगों से विरक्त हो मुनिदोक्षा धारण करेगी । घोर तपबल से कर्मारातियों को नष्ट कर मुक्ति प्राप्त करेगी। क्रमशः शिवपद पावेगी । श्रीपाल के साथ दीक्षित कुछ राजा-महाराजा, और कुछ रानी - महारानी (स्त्रीलिङ्ग च्छेदन कर ) सम्यग्दर्शन पूर्वक तपश्चरण कर तपानुसार अपने-अपने पुरुषार्थ के अनुसार यथायोग्य स्वर्गों में देव हुए। तप से उत्पन्न कर्मफल भोगने लगे। कुछ दीक्षित महिलाएँ अल्प तप बल से प्राप्त पुण्यानुसार सुन्दर रूप लावण्यमयो, दिव्याभरणभूषिता मनोहरा देवियाँ हुयी । जिनागम में प्रत्येक प्राणी अपने-अपने कर्मानुसार अपने-अपने सुख-दुःख का कर्ता-भोक्ता होता है और स्वयं ही मोक्ष पुरुषार्थ कर शिवालय में जा विराजमान होता है ।। १३० से १३४ ।।
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