Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 594
________________ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद चरितं सर्व भव्य तां मया चके स्वशक्तितः। यन्नयूनं जिनवाग्देवी, क्षमा कर्तुं त्वमर्हसि ।।१४०।। अन्वयार्थ-(इत्यादि) उपर्युक्त प्रकार (कोमलः) सरल (वाक्यः) वाक्यों द्वारा (च) और (पूर्वाचार्यक्रमेण) पूर्व प्राचार्यों की परम्परानुसार (सर्वभव्यानाम्) सम्पूर्ण भव्यों के (अवबोधार्थम् ) ज्ञान कराने के लिए (तुच्छ बुद्धया) अल्पबुद्धि वाले (मया) मेरे द्वारा (श्रीपालनपते:) श्रीपालराजा के (हितम् चरित्रग) हितकारी चरित्र को (स्वशक्तित:) अपनी शक्ति के अनसार (चके) वणित किया गया (यल) इसमें जो (न्यनम) कमो होतो (जिनवाग्देवो) जिनवाणीमाता (स्त्रम् ) ग्राप (क्षमा) क्षमा (कर्तुम् ) करने को (अर्हसि) समर्थ हो, योग्य हो । भावार्थ-यहाँ प्राचार्य श्री अपनी उदारता, मम्रता और अल्पज्ञता प्रकट करते हैं। है जिनवाणी माँ, मैंने (सकलकीति प्राचार्य ने) ' मधर वाक्यों में इस महान चरित्र को रचने का प्रयास किया है । यह श्रीपालकोटोभट का चरित्र सागरवत् विस्तृत है और मेरी अल्पवृद्धि बिन्दु समान है । मैंने जो कुछ भी भव्यात्मानों को इस चरित्र से अवगत कराने का प्रयास किया है वह सब पुर्वाचार्यों की महती कृपा का फल है । अर्थात् पूर्वाचार्यपरम्परानुसार यह लिखा है मेरी तरफ से कुछ नहीं है। इस प्रयास में शब्द, अक्षर, मात्रा, व्यञ्जन, अर्थसङ्गति में यदि कोई त्रुटि हो गई हो तो सरस्वती शारदादेवी, जिनवाणी मां क्षमा प्रदान करें। मां सर्व कल्याणकारिणो, हितकारिणी होती है । अत: वागेश्वरी क्षमामूति क्षमा कारने योग्य है । यहाँ प्राचार्यपरम्परा कहने से यह सिद्ध होता है कि यह ग्रन्थ मूल है, प्रामाणिक और यथार्थ है। जिनवाणी माता से क्षमा याचना कर आचार्य श्री ने सम्यग्ज्ञान की गरिमा प्रदर्शित की है और अपनी छमस्थ अवस्था बतला कर अहंभाव का निषेध किया है। निश्छल और सरल भाव प्रदर्शित किया है ।। १३ , १४०।। ये पठन्ति महाभन्यास्शास्त्रमेत्सुखप्रदम् । पाठयन्ति परानुच्चर्ये लिखन्ति विवेकिनः ।।१४१॥ लेखयन्ति धनं दत्वा पात्रेभ्यो वितरन्ति च । संभावयन्ति ये चित्ते तेषां सिद्धि पदे-पवे ॥१४२॥ अन्वयार्थ-(ये) जो (महाभव्या) महान भव्यात्मा (एतत्) इस (सुखप्रदम ) सुखदायका (शास्त्रम् ) शास्त्र को (पठन्ति ) पढ़ते हैं (परान्) दूसरों को (पाठयन्ति) पढ़ाते हैं (ये) जो (विवेकिनः) विवेकी (उच्चः) सावधानी से (लिवन्ति) लिखते हैं (च) और (धनम ) धन (दत्त्वा) देकर (लेखयन्ति) लिखवाते हैं (पात्रेभ्यो) मुनिआयिका, श्रावकश्राविकाओं को (बितरन्ति) बितरण करते हैं (च) और (ये) जी (सिन) मन में (सम्भावयन्ति) सम्यक भावना करते हैं (तेषाम ) उनकी (सिद्धिः) कार्य सिद्धि (पदे--पदे) पग-पग पर (भवति ; होती है। भावार्थ-प्राचार्य श्री इस परमपावन महाग्रन्थ का महत्व प्रकट करते हए कहते हैं। जो भव्य नर-नारी इस सुख-शान्ति प्रदायक ग्रन्थ को पड़ते हैं-पढ़ाते हैं अर्थात् दूसरों को पढ़कर

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