Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ]
भावार्थ--श्रेणिक महाराज ने श्रीवर्द्धमान भगवान से पाप और विघ्नौघ विनाशक महापरमपावन "श्रीपाल चरित्र" पूछा था। सर्वभूत हितकर परमदेव ने अपनी दिव्यबर्बान से सकलवृत्तान्त यथावत् निरूपण किया। समस्त सुर-असुर नागेन्द्र-नरेन्द्रादि १०० इन्द्रों से पूजनीय सर्वज्ञ प्रभु ने समस्त भव्यप्राणियों का हित करने वाला पवित्र यह श्रीपाल भुपाल का उत्तम चरित्र बतलाया। समस्त सभा हर्षोल्लास से झम उठी । इस वरद चरित्र को श्रवणकर श्रेणिक महाराज परमानन्द को प्राप्त हुए जैसे असाध्य रोगमुक्त हुआ रोगी सुखानुभव करता है। इस प्रकार समवशरण स्थित समस्त भव्यजन परम प्रमोद भरे अपने अपने स्थान को गये । महाराज श्रेणिक भी मोदभरे सपरिजन-पुरजन अपनी विशाल श्रद्धाभक्ति से गणधरादि सहित श्री वीरजिनेन्द्र को पुनः नमस्कार कर अपनी राजधानी में वापिस पागये ||१४५||
सिद्धोऽनन्त सुखाकरो निरूपम स्सिद्धं श्रितायोगिनः । सिद्धेनैव विलीयतेऽघ निचयस्सिद्धाय सिद्धय नमः ॥ सिद्धान्नास्त्यपरस्सुसिद्धिजनक स्सिद्यस्य शुद्धाः गुणाः ।
सिद्धं में बधतोमनः प्रतिदिनं हे सिद्ध सिद्धिं कुरु ॥१४६॥
अन्वयार्थ यहाँ आचार्य श्री अन्तमङ्गलरूप सिद्ध परमेष्ठी भगवान की महिमा प्रदशित कर उनके गुणों का स्मरण करते हुए स्वयं सिद्धि पाने की अभिलाषा से नमस्कार करते हैं । आठों विभक्तियों का प्रयोग कर यह श्लोक चमत्कारी शक्तिशाली बना दिया है ।
(सिद्धः) सिद्धपरमेष्ठी (अनन्तसुखाकरः) अनन्तसुख के सागर (अनुपमः) उपमातीत हैं (योगिनः) योगीजन (सिद्धम् ) सिद्धों को (ग्राश्रिताः) आश्रय लेते हैं (सिद्धेन) सिद्ध द्वारा (एव) ही (अघनिचय:) पाप समूह (विलीयते) नष्ट किया जाता है (सिद्धय) सिद्धिप्राप्ति के लिए (सिद्धाय) सिद्ध परमेष्टी को (नमः) नमस्कार है (सिद्धात्) सिद्ध से (अपरः) बढकर दूसरा (सुसिद्धिजनकः) सम्यक् सिद्धिकर्ता (नास्ति) नहीं है (सिद्धस्य), सिद्ध के (गुणाः) समस्तगुण (शुद्धाः) विशुद्ध है (मे) मेरा (मन:) मन (सिद्धे) सिद्ध में (दधत:) लगा रहे (हे सिद्ध) भो सिद्धपरमेष्ठिन् (प्रतिदिनम् ) प्रतिदिवस (सिद्धिम् ) सिद्धि (कुरु) करो।
भावार्थ-सिद्धभक्ति का वैभव इस ग्रन्थ में परिणत है । सिद्ध समूह की पूजा का कितना प्रभाव किस प्रकार होता है इस शास्त्र से सम्यक विदित हो जाता है। अस्तु आचार्य श्री अन्त में सिद्धसमूह को नमस्कार कर अपनी कृति को समाप्त करने जा रहे हैं । अपनी आत्मसिद्धि के लिए सिद्धों को पाराधना परमावश्यक है। सिद्ध परमेष्ठी अनन्तसुख अनुपम सिद्धि के खजाना है। यह प्रथमा विभक्ति कर्ताकारक हुआ। योगीजन सिद्ध को पाश्रय बना अपनी आत्मसिद्ध करते हैं। यह कर्म कारक (सिद्ध को) है । सिद्ध भगवान द्वारा सम्पूरण पापपुञ्ज नष्ट कर दिया गया। यह (सिद्ध भगवान द्वारा) तृतीया-करण कारक है। सिद्धि पाने के लिए सिद्धों को-सिद्ध प्रभु के लिए (यह चौथी सम्प्रदाय कारक है) नमस्कार है। सिद्ध से बढ़कर अन्य कोई भी सम्यक् सिद्धि करने वाला नहीं है। यह सिद्धसे-अपादान कारक है । सिद्ध भगवान के अनन्त गुण सभी परम शुद्ध और पवित्र हैं । यहाँ "सिद्ध के" यह सम्बन्ध कारक है। मेरा मन भ्रमर के समान सदा सिद्धि में ही लगा रहे । सिद्ध में-यह प्राधिकरण