Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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________________ 562] [धीपाल चरित्र दसम परिच्छेद कारक हुा / भी सिद्ध-प्रभो ! प्रतिदिन मुझे सिद्धि प्रदान करिये / 'भो सिद्ध" सम्बोधन है / इस प्रकार इस श्लोक से सभी कारकों का प्रयोग्य कविराज लेखक आचार्य श्री के सूक्ष्म गम्भोर और सरल प्रतिभा का परिचायक है / प्रात्मोपलब्धि के पिपासु आपने अभेद कारक रूप प्रात्मा के शुद्ध स्वरूप का भेद-व्यवहार रूप में बड़ा ही मार्मिक एवं यथायोग्य वर्णन किया है। इस प्रकार स्वयं अपनी आत्मा में सिद्ध स्वरूप का आरोप कर विचार करने से भेद से अभेद रूपता की प्राप्ति सरलता से उपलब्ध हो जाती है / अत: भेद और अभेद रूप कारकों द्वारा सिद्ध स्वरूप का चिन्तवन करना चाहिए। क्रमशः अभ्यास द्वारा भेद से अभेद प्राप्त करना चाहिए // 146 / / इदं पवित्र व्रतमाचरन्ति ये दृष्टिशुद्धा नृसुरादि सौख्यम् / भुक्त्वाचिरात् सिद्धिपदं व्रजन्ति श्रीपालवच्चाखिलकोतिमत्ताम् // 147 // अन्वयार्थ-(ये) जो मानव (दृष्टिशुद्धा) निमंल सम्यग्दृष्टि (इदम् ) इस (पविश्रम ) पुनीत (व्रतम) व्रत को (पाचरन्ति) पालन करते हैं (ते) वे (अखिलकीतिमत्ताम) सम्पूर्णयशस्वी (नसुरादि साँस्यम) मनुष्य, देवादि के सुख को (भुक्त्वा) भोगकर (श्रीपाल वत् ) श्रीपाल नृपति के समान (अचिरात) शीघ्र ही (सिद्धिपदम ) मुक्तिपद को (जन्ति) प्राप्त करते हैं। भावार्थ----जो भव्य श्रावक-श्राविका शुद्ध-निर्दोष अर्थात् पच्चीस दोष रहित और अष्ट अङ्ग सहित सम्यग्दर्शन धारण कर इस परम पवित्र सिद्धचक्रवत को यथायोग्य विधिवत् धारण कर पालन करते हैं वे भव्यात्मा मनुष्य और देवादि उत्तमगतियों के सारभूत सुखों को भोग शीन ही श्रीपाल भूपाल की भांति अजर-अमर मुक्तिपद को प्राप्त हो जाते हैं / जहाँ अनन्त काल तक अनन्त आत्मोत्थ आनन्द-सुख में लीन रहेंगे / अत: संसार भीत भव्य जीवों को यह व्रत परम श्रद्धा, भक्ति से यथाशक्ति आचरणीय हैं ऐसा आचार्य श्री का आदेश है / यह व्रतप्राणीमात्र का कल्याए। करने वाला है / सर्वोपकारी है // 147 // “इति श्रीपालभूपालचरितेभट्टारक श्री सकलकीति विरचिते श्री सिद्धचक्र पूजातिशय सम्प्राप्ते श्री परिनिर्वाणगमन वर्णन नाम दशम् परिच्छेदः / " / / / इति श्री मुनिसुव्रततीर्थसन्तानकालोत्पन्न श्रीपालनृपवर चरितं सम्पूर्णम् // शुभमस्तु / / श्री पञ्चगुरुम्यो नमः // भाद्रपदमास कृष्णपक्ष एकादशी, रविबार ता० 27-8-86 दिन हिन्दी टीका सम्पूर्ण हुयी। स्थान-श्री 1008 महावीर जिनालय, इचलकरंजी / अनन्तसिद्धों की जय, परमपूज्य तपोधन 108 प्राचार्य श्री आदिसागर, महावीर कीतिजो महाराज (शिक्षागुरुराज) की जय, श्री 108 आ० श्री विमलसागरजी (दीक्षागुरुमहाराज) की जय / परम्पराचार्य श्री 108 प्राचार्य सन्मतिसागरजी महाराज की जय / २०वीं शताब्दी में सर्वप्रथम गणिनीपदालङ्कृता ग. पा. 105 विजयामती माताजी द्वारा हिन्दी टीका रचना सम्पूर्ण हुयी।