Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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प्रोपास चरित्र दसम् परिच्छेद]
[५४१
है ? नही ठहर सकती । उसी प्रकार घ्यानानल की ज्वाला में कर्मरूप ईधन कैसे बच सकता है ? नहीं बच सकता । पुनः क्या हुआ ? सुनिये, फिस प्रकार कर्मयष्टियाँ भस्महु यीं ॥१६ से १०६।।
ततोऽसौ नवमे स्थित्वा गुणस्थाने महामुनिः । षत्रिंशतिः निकडा शुलवाने पूर्णता १०॥ गुणस्थाने तथा सूक्ष्मसाम्पराये यतीश्वरः । लोभं संज्वलनं हत्वा ततोऽसौ निर्मलाय सः ॥११॥ गत्वा क्षीणकषायोरू भूमिभागे समुन्नतम् । शुक्ल ध्यानाश्रिताशीध्र द्वितीयेन पराक्रमी ॥११२॥ मोहनीय रिपु जित्वा धातित्रितय संयुतम् । केवलज्ञान साम्राज्यं सम्प्राप्तः परमोदयम् ।।११३॥ त्रिषष्ठी प्रकृतिरेवं निराकृत्य मुनिश्वरः ।
सजात केवलज्ञानी स श्रीपालो जगद्धितः ॥११४॥
अन्वयार्थ-(ततो) इसके बाद (असौ) यह (महामुनिः) योगीराज (नवमे) नीमे (गुणस्थाने:) गुणस्थान में स्थित्वा) स्थित होकर (शक्लध्यानेन) शक्ल ध्यान से (षटत्रिपात्प्रकृतिः) : ६-प्रकृतियों को (पूर्णत:) आमूलचूल (क्षिप्त्वा) क्षय कर, तथा उसी प्रकार (सूक्ष्मसाम्पराये) सूक्ष्मसाम्षाय (गुणस्थाने) गुणस्थान में (यतीश्वरः) मुनोश्वर (सज्वलन) संज्वलन (लोभम् ) लोभ को (हत्वा) नाशकर (असो) यह (ततो) पुनः (निर्मलाय) निर्मलता के लिए (स:) वह मुनिराज (समुन्नतम ) अति उन्नत (ऊरु:) विस्तृत (क्षीणकषाय:) क्षीण कषाय बारहवें गुणस्थान रूपा(शुक्लध्यानाश्रिता) शुक्लध्यान के प्राश्रित (भूमिभागे भूमिप्रदेश में (गत्वा) जाकर (पराक्रमी) पराक्रमी ने (द्वितीयेन) दूसरे शुक्लध्यान से (घातित्रितय संयुतम् ) घातिया तीनों के साथ (मोहनीय रिपुम ) मोहनीय शत्रु को (जित्वा) जीतकर (परमोदयम् ) उदय की असीम सीमाधारी (केवलज्ञानसाम्राज्यम ) केवलज्ञान साम्राज्य को (सम्प्राप्तः) प्राप्त कर लिया (एवं) इस प्रकार (त्रिषष्ठीप्रकृतिनिराकृत्य) प्रेसठ प्रकृतियों को नष्ट कर (सः) वह (श्रीपाल:) श्रापाल (मुनिश्वर:) मुनिराज (जगद्धितः) विश्वहितकारी (केवलज्ञानी) केवली भगवान (सजात:) हो गये ।
भावार्थ महामुनि श्री श्रीपाल स्वामी आठवें गुणस्थान को पार कर नवमें गुरणस्थान अनिवृतिकरण क्षपक में जा विराजे यहाँ अन्तमुहूर्त में ३६ प्रकृतियों को सत्ता से नष्ट कर दिया। इस गुणस्थान के ह भाग है उनमें से प्रथम भाग में १६ प्रकृतियों को- (१. नरक गति. २. नरकगत्यानपी, ३.तिर्यञ्च गति, ४, तिर्यञ्चगत्याननी.३ विकलत्रय ८, स्त्यानगद्ध. ६. निद्रानिद्रा, १०. प्रचना-प्रचला, ११. उद्योत, १२. प्रातम, १३. एकेन्द्रिय, १४. स्थावर, १५. साधारण, १६. सूक्ष्म) सत्ता व्युच्छिति की ।।