Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 586
________________ ५५०] [श्रोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद दूसरे भाग में ८ (अप्रत्याख्यान क्रोध मान माया लोभ और प्रत्याख्यान भोधादि ४) तीसरे भाग में १ नपुसकवेद। चौथे भाग में १ स्त्रीब्रेद । पाँचवे भाग में ६ (हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा परि शोक ) । छठवें भाग में १-पुरुषवेद । सातवें भाग में १ संज्वलन क्रोध । ८ वें भाग में १ संज्वलन मान और नवमें भाग में १ संज्वलन माया। इस प्रकार ५६ + ८+१+१+ १+१+१+१ - ३६ प्रकृतियों का समूल नाश किया । शुक्लध्यान की शक्ति हो अलोकिक है। तदनन्तर चे महाव्यानी १०वं सूक्ष्मसाम्यपराय गुणस्थान में प्रबिष्ट हुए। यहाँ १ मात्र लोभ का संहार किया । क्षपकराज निवन्द बढ़ रहे थे प्रस्तु सूक्ष्मसंज्वलन लोभ के नष्ट होते ही सीधे १२ वें गुणस्थान में जा पहुँचे । क्ष पकथेणी प्रारोहक ग्यारहवें गुणस्थान में नहीं जाता । यह नियम है क्योंकि यहाँ से नियमपूर्वक पतन होता है। क्षपक श्रेणि वाला गिरता नहीं । उपशम श्रेणी में पतन अवश्यम्भावी है। प्रतः क्षाणकपाय बारहवें गुरुस्थान में पदार्पण कर उन यतीश्वर ने १६ प्रकृतियों की सत्ता व्युच्छिति कर डाली--५ ज्ञानावरणी ४ दर्शनावरणी, ५ अन्तराय की और निद्रा, प्रचला = १६ । इस प्रकार चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान पर्यन्त ६३ प्रकृतियों का आमुल नाश किया---चौथे में १ (नरकायू) + पाँचवें में १ (तिर्यञ्चायु)+सातवें में ८ (अनन्तानुबन्दी ४ देवायु, दर्शन, मोहनीय की ३ ) + आठवें में कुछ नहीं + नवमें में ३६+१+१६ - ६३ प्रकृतियाँ नाश कर अन्तर्महतमात्र समय में सयोग केवली १३ वें गुणस्थान में जा बिराजे । उपर्युक्त ६३ प्रकृतियों का नाश और केवल ज्ञानरूपी भास्कर का उदय एक साथ हमा। अतः श्रा १०८ श्रीपाल मनिराज केवली भगवान हो गये । उन्हें आर्हत् अवस्था प्राप्त हुयी । संसार का हित करने वाला पूर्णज्ञान प्रकट हो गया ।।११० से ११४॥ तत्प्रभावमहायात कम्पित्तासन सञ्चयाः । देवेन्द्राधास्सुरास्सर्वे समागत्य प्रमोदतः ।।११५॥ योग्यगन्धकुटी कृत्वा सिंहासन समन्वितः । छत्रमेकं तथा दिव्यचामर द्वयमुज्यलम् ॥११६।। विद्याधरनरस्सार्द्ध जय कोलाहलस्वनः । पुष्पवृष्टिं विधायोच्च पूजयन्तिस्म भक्तितः ।।११७।। प्रन्वयार्थ- (तत्) उस केवल ज्ञान के (प्रभावमहावात) प्रभुत्वरूपी प्रचण्ड पवन मे (कम्पितासन) वाम्पायमान हुए प्रासन वाले (देबेन्द्रादि) इन्द्र आदि (मर्वे) सम्पूर्ण (मरा। देवता (संचयाः) समूह (प्रमोदतः) प्रानन्दातिरेक से (समागत्यः) आकर (सिंहासनरामन्वितः) सिंहासन सहित (योग्य गन्धाटों) योग्य गन्धकुटी को (कृत्या) बना कर (एकम । एक छत्रम) छत्र (तथा) एवं (उज्वलम) स्वच्छ (द्वयम ) दो (दिव्य चामर) दिव्य चामर (कृत्वा) लगाकर (विद्याधरः) विद्याधर नरैः) मनुष्यों के (साईम ) साथ । जयकोलाहलस्वनैः) जय जय ध्वनि, (पुष्पवृष्टिम) पुष्पवर्षा (विधाय) करके (उच्चैः) विशिष्ट (भक्तितः) भक्ति से (पूजयन्तिस्म) पूजा की ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598