Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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१२ ]
| श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद
२. पूजा-प्रतिष्ठादि पाकर अभिमान से फूल जाना ।
३. कुलमद - मैं श्रेष्ठ कुलोत्पन्न हूँ, मेरे समान अन्य नहीं है ।
४. जातिभद - जाति का अहंकार करना ।
५. बलमद शारीरिक बल शक्ति का घमण्ड करना
६. ऋद्धिमद -- तप के प्रभाव से ऋद्धि हो जाने पर उसका अहंकार करना ।
७. तपमद - उपवासादि की शक्ति विशेष का अहंकार होना ।
८. रूम (व) - रारी सौन्दर्य का अभिमान करना ।
इसी प्रकार अनायतन हैं । १. मिथ्यादेव २. मिथ्या देवपूजक ३. खोटा मिथ्यागुरु ४. मिथ्या गुरु सेवक ५. मिथ्या शास्त्र और ६. कुशास्त्र के अनुयायी इनको मान्यता देने से सम्यक्त्व में दोष लगता है। ये ६ अनायतन कहलाते हैं ।
तीन मुटता १. देव मूढ़ता २ गुरु महता और ३ समय मूढता । इस प्रकार २५ मल दोप सम्यग्दर्शन को दूषित करते हैं ।
संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित सम्यग्ज्ञान होता है। इसी प्रकार अतिचार रहित चारित्र पालन करते थे । वे मुनिराज शुद्ध रत्नत्रय से सम्पन्न होकर यथा योग्य स्वर्ग और मोक्ष प्राप्त करते थे ।। २२ ।।
एवं वर्णाश्रमा यत्र स्वस्वधर्मेषुतत्पराः ।
तिष्ठन्ति स्मसदाप्युच्चैः परमानन्दनिर्भराः ॥२३॥
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श्रन्ययार्थ—(एवं) इस प्रकार ( यत्र ) जहाँ पर ( वर्णाश्रमा) प्रत्येक वर्णाश्रमी (सदा सर्वदा ( उच्चैः ) विशेष रूप से ( परमानन्दनिर्भराः) परम प्रानन्द से मरे ( स्वस्वधर्मेषु) अपने अपने धर्म में (तत्पराः ) लीन हुए सन्नद्ध ( तिष्ठन्तिस्म) रहते थे ।
भावार्थ -- वहाँ क्षत्रिय, वैश्य, ब्राह्मण एवं शुद्र चारों व
अपने अपने कर्तव्य पालन
।
में सन्नद्ध रहते थे । अपने-अपने कर्त्तव्य में प्रसन्न और उत्साही थे सदैव धर्म नीति के. अनुसार सत्यरूप से अपने कर्तव्य का पालन करते थे । इसी प्रकार गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ श्राश्रम ब्रह्मचर्याश्रम और ऋषि श्राश्रम निवासी भी अपने अपने योग्य क्रिया काण्डों को यथोचित समयानुसार भक्ति और लगन से करते थे । तात्पर्य यह है कि वहाँ सभी ज्ञानी, जागरूक श्रीर कर्तव्य निष्ठ थे । ।। २३ ।।
इत्येवं सम्पदोपेतेऽवन्तिदेशे सुखास्पदे ।
प्रभूदुज्जयनी नाम्ना नगरी तु गरीयसी ||२४||
प्रन्वयार्थ - (इति) इस प्रकार ( एवं ) इस प्रकार की ( सम्पदोपेतः) नाना सम्पत्तियों