Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रोपाल चरित्र पञ्चम परिच्छेद ]
[३२१ बोली (जिनेन्द्रोक्तज्ञातसिद्धान्त) जिनेन्द्र भगवान प्रणीत सिद्धांत के ज्ञाता (सन्मते) श्रेष्ठ बुद्धिशालिन् (अहो) भो (कान्तः) पतिदेव (नाथ) भो प्राणनाथ ! (अधुना) इस समय (मरकृपया) मुझ पर दयाकर (मे) मेरे लिए (आत्मीयं) अपना (कुलम् ) कुल(कथय) कहिये । (ततः) यह सुनने पर (वीरः) सुभटाग्रणी श्रीपाल (अवदत्) बोला (कान्ते) हे प्रिये (एते) ये नट (मत्कुलम) मेरा कुल (बदन्ति) कह रहे हैं।
भावार्थ-सी मुख से लनाचार सुन पति के प्राणनाश आशङ्का से वह महासती गुणमाला अबिलम्ब प्रमशान घाट में जा पहुँची । श्रीपाल को बन्धनबद्ध देख उसके दुःख और शोक असीम हो गये। वह अश्रुपात करती हुयी रुधिर वाणी में बोली भो देव, हे प्राणेश्वर यह सब क्या है ? आप जैनसिद्धान्त के पारङ्गत है। जिनेन्द्र प्रभु द्वारा कथित जिनवाणी के सार के मर्मज्ञ हैं । परम दयालू हैं मुझ पर कृपा कीजिये, भो प्राणनाथ अति शीघ्र आप अपना कुल-वंश जाति म ज्ञात कराइये ! प्रभो मेरे सर्वस्व बोलिये यथार्थता क्या है इसे स्पष्ट कीजिये । पत्नी की प्रार्थना सुनकर धीर वीर, निर्भीक सिंहसम पराक्रमी श्रीपाल मुस्कुराता हुआ बोला, हे प्रिय, भो कान्ते ! ये नटलोग मेरा कुल कह रहे हैं न ? क्या तुमने नहीं सुना ? बस इसी को सत्य मान लो । ये पूरा परिचय दे रहे हैं ॥१३८, १३६।।
विचक्षणाह सा स्वामिन्न वक्तव्यमिदं त्वया । प्रद्याऽपि फि त्वयानाथ कुलपूतं न गोप्यते ।।१४०।। किन्वादिशाशु मे याथातथ्येन स्वकुलोत्तमम् ।
नोचेप्राणान् मुञ्चामि पुरस्ते प्रारगवल्लभः ॥१४१।
अन्वयार्थ--(सा) वह (विचक्षणा) विलक्षणमती (आह) वोली (स्वामिन्) हे म्वामी (इदम ) यह (स्वया) प्रापको (न) नहीं (वक्तव्यम् ) करना चाहिए। (किं) क्या (अद्याऽपि) याज भो (नाथ) प्रभो (त्वया) तुम्हारे द्वारा (पूतम् ) पवित्र (कुलम्) कुल (न गोप्यते) नहीं छ पाया जा रहा है क्या ? यह सत्य नहीं (किन्तु) परन्तु (याथातथ्येन) यथार्थ रूप से (मे) मुझ से (उत्तमम् ) उत्तम (स्वकुलम ) पाने कुल को (प्राशु) शीघ्र ही (आदिश) कहिये (नोचेत्) यदि आप नहीं बताते हैं तो (प्राणवल्लभः) भो प्राणप्रियनाथ (ते) आपके (पुरः) सामने ही (प्राणान् ). प्राणों को (मुञ्चामि) छोड़ती हूँ।
मावार्थ-विलक्षणमति महासती गुणमाला भला इस असत्प्रलाप को किस प्रकार स्वीकार कर सकती थी। उसने कहा कि यह कदापि सत्य नहीं हो सकता है ? आप अभी भी इस प्रकार बोल रहे हैं । क्या यह सत्य है ? नहीं-नहीं कदापि यह सत्य नहीं हो सकता । भो स्वामिन पापको इस प्रकार नहीं कहना चाहिए ? आज इस समय भी पाप क्या अपने पवित्र कुला को नहीं छिपा रहे हैं ? नीच जाति कुलोत्पन्न भला भुजाओं से सागर की छाती चीरने में समर्थ हो सकता है ? उत्तम कुल का आचार-विचार, मदाचार, धर्मज्ञता, तत्त्वविज्ञान क्या कभी नीच कुलोत्पन्न व्यक्ति में पाया जा सकता है ? कभी नहीं । मैं जानती हूँ आप जसे