Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 571
________________ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद ] [ ५३५ अनन्त सुख का अनुभव करते हुए अनन्तकाल निवास करते हैं। दुष्ट भ्रष्टकर्मों के उच्छेद से परमोज्ज्वल आठ गुण प्रकट हो जाते हैं। उन सम्मत्त, णाण दंसण आदि गुरणों के प्रकट हो जाने से सिद्धपरमात्मा परमानन्दस्वरूप वितन्य में निन्न रहते हैं । इनका स्मरण-ध्यान करने से पाप और संताप का श्रनन्तपुञ्ज क्षणमात्र में उस प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार घनघोर तमतोम रवि के उदय होने के साथ ही विलीन हो जाता है। इस लोकाकाश के परे बाहर सर्वत्र श्रलोकाकाश है वहाँ अनन्त शून्यस्वरूप श्राकाश ही आकाश हैं। इसका प्रमाण अनन्तानन्त हैं | इस प्रकार लोक और अलोक का विभाग कर उनका स्वरूप श्री जिनेन्द्र - सर्वज्ञ भगवान वीर प्रभु ने निपित किया है । यद्यपि यह लोकालोक अनादि है अनन्तकाल से प्रनन्त तीर्थङ्करों ने इसी रूप में इसका स्वरूप वर्णन किया है परन्तु वर्तमान काल में श्री वीर भगवान का शासन चल रहा है। इसी से वीर प्रभु ने बताया ऐसा कहा है। इस प्रकार लोक स्वरूप का वर्णन चित्तवन करना लोकभावना है। पृथक् पृथक् घनफल निकालने पर निम्न प्रकार होता है । प्रधालोक का प्रमाण लोक के नीचे ७ राजू है भूमि = ऊपर जाकर १ राजू है - मुख "भूमि जोगदपदगुणिडे" इत्यादि सूत्रानुसार– ७+१८२४ पद दक्षित्र उत्तर ७ राजू है सर्वत्र । अतः ४x७ - २५ व. रा. क्षेत्रफल हुआ। इसे अधोलोक की ऊँचाई ७ राजू से गुणा करना - २८४७ १६६ घन राजू अधोलोक का घनफल हुआ । इसी नियम से इसी प्रकार ऊर्ध्वलोक का घनफल निकालना चाहिए। उर्व्वलोक के दो भाग हो जाते हैं। अत: प्रथम आधे ऊर्ध्वलोक का घनफल निकालना -- मुख - १ राजू भूमि - ५ राजू १ + ५ = ६ ÷ २ - ३ इसको पद ७ राजू से गुणा करो ३ x ७ २१ वर्ग राजू क्षेत्रफल हुआ। ऊँचाई ३ राजू है है गुनना अर्थात् २१४५ - - धन राजू इसको दूना १४७ २ १ ४७ २ x २ १४७ घन राजू ऊर्ध्व लोक का घन फल है। दोनों का योग १९६ करना घ. रा. + १४७ घ. रा. = ३४३ घन राज़ हुआ । तीनों लोकों का विभाग द्वादशानुप्रेक्षा में निम्न प्रकार किया है मेस हिभाए सत्त वि रज्जू हवेड अह-लोभो । उम्म उड्न लोभो मेरु समो मज्झिमो लोभो ।। १२० ।। अर्थ- मेरुपर्वत के नीचे ७ राजू अधोलोक है। ऊपर अर्थात् मेरु के ऊपर उ

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