Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 578
________________ ५४२ [श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद भोगों को विज्ञानी महापुरुष स्त्री, पुत्र, परिवार के साथ-साथ अतिशीघ्र त्याग कर उत्तम हितकारी संयम को ग्रहण करते हैं । अर्थात् वाह्याभ्यन्तर परिग्रहों को आमूलचूल त्याग परमपावन दीक्षा धारण करते हैं। इस प्रकार तुच्छ भोगों का बार-बार चिन्तवन करते हुए महाराज श्रीपाल का बरमय द्विगुणित हो गया। सोपोरने वह राज्य सम्पदा का सर्वथा त्यागकर संयम धारण करने को पूर्ण सन्नद्ध-कटिबद्ध हो गया। हद निश्चय राजा प्रात्म-कल्याण में तत्पर हुआ ।। ६०-६१-६२ ।। ततो दत्त्वा महीपालः तुजे राज्यं श्रियासमम् । जगाम तपसे भूपस्सुवताचार्य सन्निधिम् ।।३।। अन्वयार्थ—(ततो ) रिपक्व वैराग्य होने पर (धयासमम् ) लक्ष्मी के साथ (राज्यम) राज्य को (महीपालतुजे) महीपाल पुत्र को (दत्त्वा) देकर (भूप:) श्रीपाल राजा (तपसे) तपश्चरण करने के लिए (सुव्रताचार्यसन्निधिम्) श्री १०८ सुव्रत आचार्य थो के सान्निध्य में (जमाम) चला गया । भावार्थ - द्वादश भावनाओं का चिन्तवन कर, संसार, भरीर और भोगों को असारता को ज्ञात कर राजा श्रीपाल का वैराग्य अन्तिम सीमा को प्राप्त हो गया। उसी समय USal MAHTELETTHALI FIRSAATINIH MAHILA . IINALLL ल ..

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