Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र नवम् परिच्छेद]
४६६ चित्त में सोचते-सोचने उसे अपार आश्चर्य और हर्ष हो रहा था। उसी समय उस इन्द्रराज को अवविज्ञान प्रकट हो गया । पूर्वभव चलचित्र की भाँति ही उसके सामने घुमने लगा। वह विचार रहा है ठीक है मैंने पूर्वभव में सत्तात्रदान दिया. श्रीजिनभगवान की पूजा की थी, सिद्ध चक्र आराधना व्रत, उद्यापन किया, शीलपालन किया, परोपकार कुशल था, उसी सबका यह फल है। इस प्रकार निश्चय कर बह बार-बार जिनशासन के महात्म्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा । धन्य है धर्म का प्रभाव, व्रत की महिमा अपार है । यद्यपि उसका शरीर सप्तधातु विहीन था तो भी नियोगानुमार, विधिवत् वहाँ स्थित अमृत वापिका में स्नान किया । वस्त्रालङ्कार धारण किये । स्वभाव से चिन्तन मात्र से प्राप्त गन्ध, पुष्प चरु, दीप धूप आदि पूजा द्रव्यों को लेकर उस विमान में स्थित अकृत्रिम चैत्यालय में गया । वह सुवर्ण निर्मित जिनालय था। उसमें चरनों की अकृत्रिम विशाल जिनप्रतिमाएं विराजमान थी। उस नब इन्द्र ने अपार श्रद्धा भक्ति से उन तीमलोक के नाथ जिनेन्द्र भगवान की दुःख दारिद्रय, पापनाशक पूजा को । तदनन्दर भव्यप्राणियों को सुखसम्पदा की प्रदाता, स्वर्गादि देनेवाली अद्वितीय स्तुति की। वस्तुत: श्रीजिनेन्द्र भगवान की पूजा भक्ति व स्तुति अदभुत फल देने वाली होती है । भगवद् भक्ति में राग-द्वेष का शमन करने का जाद है। जिन पूजा दारिद्रय नाशक है। जिनस्तबन उच्नकुल और शुभ्र यश प्रदान करती है। भव्यजीवों को सतत पूजा, दान व्रत, और जप, तप करने में तत्पर रहना चाहिए ॥११३ से १२१।।
सम्यग्दृष्टि भव्य स्वर्गादि वैभव पाकर भी उसमें प्रासक्त नहीं होता । धर्म को नहीं मुलता । भोगों में नहीं फंसता अपितु उसे धर्म का फल समझ कर और अधिक धर्म में हदबुद्धि हो जाता है । यही आगे दिखाते हैं
ततः सिंहासनारूढस्सन्नतान् स्व सुरान् सुधीः ।
प्रीत्या सम्मानयामास स्व वाक्यामृतवर्षणः ॥१२२।।
अन्ययार्थ--(ततः) श्रोजिनपूजा विधानादि कर (सिंहासनारूदः) अपने शासन सिंहासन पर स्थित होते (सन्) हुए (सुधी:) उस ज्ञानी इन्द्र ने (प्रीत्या) स्नेह से (तान्) उन (मुरान्) सभाषद देवों को (स्व) अपने (वाक्यामृत) वचन रूप अमृत (वर्षरगैः) वर्षा द्वारा (सम्मानयामास) सम्मानित किया।
रूप लावण्य सन्दोह देव बृन्दैस्सहोत्तमान् । स भुक्ते स्म मलाभोगान् शब्दमात्र सुखाकरान् ॥१२३। देवी गणाधिभियुक्तः कदाचिद् निज लीलया। साररत्न विमानस्थो ध्वजाद्यैः परिमण्डितः ॥१२४॥ गत्वा शाश्वत् सुक्षेत्रभूमिषु स्वशुभोदयात् । अणिमादि गुणोपेतो महाधिभव संयुतः ॥१२५॥