Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ थोपाल चरित्र दसम परिच्छेद ब्राह्मणा क्षत्रियाः वैश्यास्त्रयो व द्विजातयः । तस्य राज्ये तदा सर्वे चक्र : धर्म दयायुतम् ॥३२॥ सद्धर्म विजयी राजा श्रीपालो जिनधर्मभृत् । दान पूजादिकं कुर्वन् परोपकृति तत्परः ॥३३॥ विधाय सुचिरं राज्यं प्राज्यं गम्भीर मानसः । प्रतापनिजितारातिस्सज्जननां सुवत्सलः ॥३४॥ इत्याद्याप्त सुसामग्र या भुजानः परमं सुखम् । कालं बहुतरं पुण्यात् सोऽनयत् सुखलोलया ॥३५॥ एकदा च बने दोक्ष्य स, दयालुः प्रभावतः ।
तंटाके कर्दमे मनं मृतं मातङ्गमुन्नतम् ॥३६॥
अन्वयार्थ-(तस्य ) उस श्रीपाल के (राज्ये ) राज्य में (तदा) उस समय (ब्राह्मणा.) बाह्मण, (क्षत्रियाः) क्षत्रिय (वश्या:) वैश्य ये (त्रयः) तीनों (वर्णा) वर्णवाले (द्वजातयः) विनाति (स, सर्वचन याः) क्ष्यारी (धर्मम) धर्म को (चक्र :) पालन करते थे (जिनधर्मभत) जित धर्म को धारण करने वाला (सद्धर्मविजयी) सम्यक् धर्म पर विजय पाने वाला (श्रीपालः) श्रीपाल (राजा) भूप (परोपकृतितत्परः) परोपकार में तत्पर (दानपूजादिकम ) दान, पूजादि (कुर्वन् ) करता हुआ (गम्भीरमानसः) गम्भीर आशयी (प्रतापनिजिताराति) प्रभुत्व से पात्र समूह को जीतने वाला, (सज्जनानाम् सुवत्सलः) सज्जनों का प्रोतिपात्र (सुचिरम् ) बहुतकाल (प्राज्यम ) विशाल (राज्यम) राज्य को (विधाय) पालन करते हुए (इत्यादि) उपर्युक्त (सामग्रया) उत्तम सामग्री (आप्तः) पाने वाला (परमम् ) उत्तम (सुखम.) सुख (भुजानः) भोगता हुअा (स) उसने (पुण्यात्) पुण्य से (बहुतरम् ) बहुत सा (कालम् ) समय (सुखलीलया) सुख मे लीला करते हुए (अनयत्) य्यतीत किया (च) और फिर (एकदा) एक समय (बने) वन में (प्रभावतः) स्वभाव से (दयालुः) कृपालु (सः) वह (तटाके) सरोवर तट पर (कर्दमेः) कीचड़ में (मग्नम ) फंसकर (मृतम ) मरे (उन्नतम,) विशाल (मातङ्गम) हाथी को (वीक्ष्य) देखकर ।।३२ से ३६।।
सुधो सं-चिन्तयामास स्वचित्ते भव्यसत्तमः । अहो महागजेन्द्रोऽयं यथा मग्नोऽत्र कर्दमे ॥३७॥ तथा सर्वो जनो मूढो निर्मग्नो मोहकदमे । मे मे कुर्वन् तथा मूढो मग्नः स्त्रीकायकर्दमे ॥३८॥ कामज्वराति संतप्ता यास्यन्ति यममन्दिरम् । यमः स एव हन्तव्यो यो नयत्यङ्गिनो बलात् ।।३६।।