Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद
श्रीमज्जिनेन्द्र चन्द्रोक्तं पवित्र क्षेत्र सप्तकम् । सिञ्चयामास पूतात्मा सद् दानामृत वर्षरणैः ॥३०॥ इत्यादिकं जिनेतॊक्तं धर्म कुर्वन्तमुत्तमम् ।
तं भूपति समालोक्य तत्प्रजा च तथा करोत् ॥३१॥
अन्वयार्ग--(किरीटादियुतानि ) मुकुटबद्ध (भूपतीनां सहस्राणि) हजारों राजा (सुभक्तितः) उत्तमभक्ति से (श्रीपालं महाराजम ) श्रीपालमहाराज को (सेवन्ते स्म) सेवा करते थे च) और (प्रोत्तुङ्गविग्रहाः) उन्नत विशालकाय (द्वादशोरूसहस्राणि) बारह हजार विशाल (गजाः) हाथी, (सर्ववस्तुशतः) सैकड़ों प्रकार की अनेक वस्तुत्रों से (पूर्णा:) भरे हुए (पूर्णमनोरथाः) मनोरथ को पूर्ण करने वाले (रथाः) रथ, (पञ्चवर्णविराजिताः) पञ्चवणों वाल शोभायमान (नानादेश समूत्पन्नाः) भिन्न-भिन्न देशों में उत्पन्न (द्वादशलक्षारिण) बारह लाख (अश्वा:) घोडे (तस्म) उस (महीपते:) श्रीपाल राजा के (अभवन्) हुए । (शत्रुग्गाम् ) शों के (प्राशने) नाश करने में (तूरा:) उत्साही (वा) मानों (यमदूतका:) यम के दूत (ऋ रा.) कोर्यशाली (उच्च:) महाशक्ति से (सूभटोत्तमाः) बोरों में थेष्ठतम सुभट (तस्य) उसके योद्धा (द्वादशकोटयोः) बारह करोड (प्रोक्ताः) कहे गये हैं (तथा) उसी प्रकार (सर्ववस्तुभृतानि) नाना वस्तुओं से भरे हुए (कोटिग्राम युतानि) करोड़ों ग्रामों से सहित (देशसहस्राणि हजारों देश थे वे (उच्चैः) महान (निधानानि) खजानों के (इव) समान /रेजिरे) शोभायमान थे। (सार सद्रत्न) उत्तम रत्न (माणिक्य) माणिक (स्वर्ग) सुवर्ण मुक्ताफलानि) मोतियाँ (च) और भी अनेकों रत्न (तस्य) राजा के (पुण्यतः) पुण्य से (अत्र) यहाँ इसके राज्य में (सागरम ) समुद्र (एव) ही हो इसको (केन) किसके द्वारा (वर्ण्यते) वर्णित किया जाय ? (इत्यादि) और भी (सम्पदाम् ) सम्पत्ति (सारै:) सारभूत वैभव द्वारा (श्रीपालः) श्रीपाल (महाप्रभुः) महीपति (निष्कण्टक) शत्रुविहीन (महागज्यम ) विशाल राज्य को (प्रकुर्वन्) करता हुआ (प्रजा:) प्रजा को (पालयन्) पालन करता हुआ (प्रमदावन्दमवित: महादेवियों से सेवित (उचैः) महान (सारभोगसमानि उत्तम भोगों को (पुण्यपाकेन) स्व पुण्योदय से (चक्रवर्ती) चक्री (दव) समान (निश्चल :) अखण्ड रूप से (भुजानः) भोगता था।
(श्रोमज्जिनेन्द्रचन्द्रोक्तम ) श्रीमज्जिन भगवान द्वार: कथित (पवित्र) पावन (क्षेत्रसप्तकम् ) सात क्षेत्रों में (पूतात्मा) पवित्रात्मा राजा (सद्दानामृतवर्गणैः) उत्तमसत्पात्र दान रूपी अमृत की वर्षा द्वारा (सिञ्चयामास) सिचिन करता था (च) और (इत्यादिकम् ) दान, पूजादि कार्यों को (जिनेप्रोक्तं) जिनभाषित (उत्तमम् ) उत्तम (धर्मम् ) धर्म को (कुर्वन्तम) करते हुए (तम्) उस (भूपतिम) राजा को (समालोक्य) देख कर (तत्प्रजा) उसकी प्रजा भी (तथा) उसी प्रकार (अकरोत् ) करती थी।
भावार्थ---यहाँ श्रीपाल महामण्डलेश्वर के वैभव का वर्णन किया है। हजार मकूटबद्ध राजा उसकी सेवा करते थे । अन्य राजाओं की गिनतो क्या ? सभी राजा महाराजा परम