Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद हते हैं तो शान है औ, शुभ । परिणामत करें तो अशुभ मानब होता है । इस प्रकार विचार करना कि ये आस्रव ही संसार के वर्द्धक हैं, दुःख के हेतू हैं, दुःख स्वरूप हैं इस प्रकार विचार कर आस्रव के कारणों से विरक्त होना चाहिए। यह प्रास्त्रव भावना है। इसके चिन्तवन से मन संयमित-स्थिर होता है। जिस प्रकार नाब में छिद्र हो जाने से नाव में पानी भर जाता है और · धीरे-धीरे वह नाव को डुबो देगा। उसी प्रकार उपर्युक्त मिथ्यात्वादि ५:७ आत्मा रूपी नौका के छिद्र हैं । इन छोदों से कर्मास्रव-कर्म जल भर कर आत्मा को संसार सागर में डुबो देते हैं । अत: बुद्धिमानों को इन छिद्रों को बन्द करने का प्रवास करना चाहिए ।।६४-६५।।
संवरोऽपि भवेन्नित्यं भव्यानां शर्मकारणम् । निजितेषु तथा तेषु मिथ्यात्वादिकशत्रुषु ।।६६।। तस्मात्सर्व प्रयत्नेन जैन तत्त्व विदाम्बरैः ।
जित्वा नानासवानाशु संवरः संविधीयते ॥६७।। अन्वयार्थ---(तेषु ) उन (मिथ्यात्वादिक शत्रुप) मिथ्यात्व आदि शत्रुओं के (निजितेषु) सम्यक प्रकार जीत लेने पर (भव्यानाम् ) भव्य जीवों के (नित्यम्) निरंतर (णमकारणम्) सुख-शान्ति दायक (संवरः) संवर (अपि) भी ( भवेत्) होता है (तस्मात् ) इसलिए (जनतत्त्वविदाम्बरः) जनतत्व के जाताओं को (आशु ) शीघ्र ही (तथा) उस प्रकार के (नाना) अनेकरूप (प्रास्रवान् ) आत्रवों को (जित्वा) जीतकर (संवरः) संवर (संविधीयते) का विधान करना चाहिए।
भावार्थ-उपयुक्त प्रासय के हेतु मिथ्यात्वादि का नाण करने से संवर होता है। आते हुए कर्मों का रोक देना ही संबर है । कारण के अभाव में कार्य स्वयं रुक जाता है। नाव में छिद्र होने से पानी आने लगा. छिद्र बन्द कर यिा जाय तो जल प्रवेश रूक जायेगा तथा नाव यथा स्थित रह सकेगी । इसी प्रकार पासव के रूकने पर आत्मा का भार अधिक नहीं होगा मुख और शान्ति की अनुभूति जागृत हो सगी । अत: तत्त्वज्ञ पुरुषों को सुरुद्ध प्रयत्न पूर्वक संवरतत्व को अपनाने को चेष्टा करना चाहिए । शीघ्र ही संवर द्वारा नबीन कर्मास्रवों को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए । इस प्रकार संबर भावना भावे ।।६६-६७।।
निर्जरा कर्मणः कार्या तपोभिर्वादशात्मकः। वाद्याभ्यन्तर भेदाभ्यां जिनोक्त: शर्मकारिभिः ।।६।। पञ्चेन्द्रियाणि निजित्य ये कुर्वन्ति जिनोदितम् ।
तपस्ते संसृतौ धन्या मनुष्याः परमार्थिनः ॥६६।। अब निर्जरा भावना का स्वरूप देखिये - प्रन्ययार्थ—(जिमोक्त :) जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित (वाह्याभ्यन्तरभेदाभ्याम् )
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