Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 564
________________ ५२८] [श्रीपाल चरित्र दसम परिच्छेद शरीर का स्वभाब (अशुचित्वम्) अपवित्रता ही है (भावयामास) चिन्तवन करें (यत्सङ्गात्) जिसके साहचर्य से (चन्दनागुरु कपूरधौलवस्त्रादिकम् ) मलयागिर चन्दन, अगरू, कपूर, सफेद सुन्दर वस्त्रादि (शुभम् ) शोभायमान (पुष्पदामादिकम्) पुष्पमाला, गन्ध, इत्र आदि सुगन्धित उत्तम बस्तुएं भीघ्रम् ) तत्काल (तादृशम्) उस शरीर के समान अपवित्र धिनावनी । भवेत्) हो जाबे (अवशरीरके) ऐसे इस शरीर में (चर्मास्थिसंभवे) चमड़ा, हड्डियों से निर्मित (नित्यम् ) नित्य ही (चाण्डालगृहसनिमे) चाण्डाल-मातङ्ग के घर के समान शरीर में (सन्त:) सत्पुरुष (कथम्) कैसे (प्रोतिम्) राग (प्रकुर्वन्ति) करते हैं ? अर्थात् नहीं करते। भावार्थ - महाप्रभु वैराग्य से युक्त श्रीपाल छठवीं अशुचि भावना भाते हैं । "यह शरीर मल में उत्पन्न मल से ही निर्मित है। हाड़, माँस, चाम, मज्जा, कालेय, पीवादि सात धातुओं से भरा है। इन्हीं से निर्मित है निरन्तर ये ही मल मूत्रादि अपवित्र पदार्थ सब भोर से बहते रहते हैं । हमेशा ही यह रोगादि का पिटारा होने से दुःस्व और संताप का कारण बना रहता है । महादुःखदाता है । इस प्रकार मुमुक्षुत्रों को निरन्तर भावना करनी चाहिए । इतना ही नहीं बह शरीर महादुर्जन समान है इसे कितनी ही सुन्दर-सुरभित, अमूल्य अमर-तगर, कपूर, मलयागिर चन्दन, केसर आदि से लिप्त करो परन्तु अपनी गन्दगी को नहीं छोड़ता इसके विपरीत इन पदार्थों को भी अपने रूप परिणमा लेता है । पुष्पमाला, सुरभित पुष्प, स्वच्छ, बस्त्र. नवीन-नवीन चमकदार पोशाक, प्राभूषण प्रादि उत्तम वस्तुओं को अल्प समय में ही मलोन कर डालता है । दुर्गन्धयुत बना देता है । इस प्रकार के निकृष्ट-तुच्छ शरीर में भला सन्तपुरुष प्रीति कर साते हैं क्या ? यह सज्जनों को प्रिय हो सकता है ? सभी नदी पदाधि नहीं। वे इसे भङ्गी मातङ्ग के घर के ममान अश्पृश्य, हेय और त्याज्य समझते हैं । साथ ही नाना जीवां और रोगों से भी यह संकल-भरा है। अतः भेदविज्ञानी हितक्ष, प्रात्मार्थी भव्य इम कृतघ्न गरोर में कैसे प्रीति करे ? अर्थात् नहीं करते। इस प्रकार चिन्तवन करने से वैराग्य पुष्ट होता है । महाराज श्रीपाल भी अपने गरीर मोह त्याग को परिपक्व करने के लिए बारम्बार इस अशुचि भावना का चिन्त वन कर रहे हैं ।।६१ से ६॥ प्रासवाः कर्मणां जन्तोर्जायन्ते दुःखवायकाः । मिथ्यात्वपञ्चकः कण्टरवतैदिश प्रमैः ॥६४।। कषायः पञ्चविंशत्या योगः पञ्चदशात्मकः । भग्न नौरिव जीवोऽसौ नीयते ते रसातलम् ।।६।। अन्वयार्थ (मिथ्यात्वपञ्चक:) पांच प्रकार के मिथ्यात्वों द्वारा (द्वाद प्राप्रमः) बार प्रकार के (कष्ट:) कष्टदायक (अवतः) अविरतियों से (पञ्चविशत्याकषायै:) पच्चीस कपायों से पञ्चशात्मकः) पन्द्रह प्रकार के (योगः) योगों द्वारा (जन्तोः) जीव के (कर्मपणाम कमी का (पानवाः) मात्रय (जायन्त) होते रहते हैं (असो) यह (जीव:) प्राणी ति उन प्रासबों से (भग्नौः) सछिद्र नौका के (इव) समान (रसातलम् ) संसार सागर के मध्य रसातल में (नीपते) ले जाया जाता है।

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