Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 567
________________ [ ५३१ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद] बाह्य और प्राभ्यन्तर भेद बाले (द्वादशात्मकः) वारह प्रकार के (शर्मकारिभिः) शान्ति, सुख दायक (तपोभिः) तपों द्वारा (कर्मण:) कर्म (निर्जरा) निर्जरा (कार्या) करना चाहिए (थे) जो मानव (पञ्चेन्द्रियाणि) पाँचों इन्द्रियों को (निर्जित्य) जीत कर (जिनोदितम्) जिन भगवान द्वार। कथित (तपः) तपश्चरण को (कुर्वन्ति) करते हैं (संमृती) संसार में (ते) ने (परमार्थिनः मनुध्याः) मानव मोक्षाभिलाषी (धन्याः) धन्य हैं । भावार्थ --- अरहंत, सर्वज्ञ जिनभगवान ने निर्जरा का हेतु तप कहा है। वह तप दो प्रकार का बाया है १ बाह्य और २ प्राभ्यन्तर । पुन: प्रत्येक के ६-६ भेद हैं । इस प्रकार बारह प्रकार का तप कहा है । जो वाह्य में देखने में पा सके वह बाह्य तप हैं "अनशनावमोदर्यवत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविशय्यासनकायक्लशा बाद्य तपः । (१) शनअनः-चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप है। (२) अवमौदर्य तप:- अर्द्धपेट या 'यूरस र कम माना नामक तम है । (३) वृत्तिपरिसंख्यान:-चर्या (आहार) के लिए जाते समय अवग्रह करके निकलना और उस नियमानुसार भिक्षा याहार मिलने पर ही श्राहार लेना वृत्तिपरिसंख्यान (४) रसपरित्याग तपः-दुग्ध, दही, घी, नमक, तेल और मीठा ये छः रस कहे जाते हैं। इनका त्याग करना अथवा इनमें से यथाशक्ति एक, दो, चार, पांच आदि रसों को छोड़कर आहार ग्रहण करना रसपरित्याग तप है । (५) विविक्त शय्यासन:- तपश्चरण, साधना, मनोबल पीर धैर्य की वृद्धि के लिए तथा कर्मों को निर्जरा हेतू इस विविक्त शय्यासन तप को करते हैं । अर्थात् एकान्त, निरापद वन, गुफा, पर्वत, जिनालय आदि में सोना, बैठना, ध्यान, अध्ययन वारना विविक्त शव्यासन तप है। (६) कायरलेश: मामा प्रकार आसन लगाना, मुद्राएँ बनाना, घण्टों एक ही आसन से बैठकर आत्मस्वरूप चिन्तन करना, एक पैर पर खडे रहना आदि करना कायक्लेश है। नाना प्रकार प्रतिमास्थानं, शरीर को स्थिर करना, आतापनादि तप करना ये सब काय क्लेश तप है । इसा प्रकार प्राभ्यन्तर तप के भी छः भेद हैं.-यथा ' प्रायश्चित्त बिनयबयाबृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ।।२० त. सू. अ. ६ ।। (१) प्रायश्चित्त-(अपराध होने पर गुरुसाक्षी में उनका निराकरण करना।) (२)विनय - मानसिक, बायनिक, कायिक और औपचारिक इन चार प्रकार के विनयों का पालन करना । तप, सम्यग्दर्शन, सम्यग्नान और सम्यक् चारित्र के प्रति भक्ति, श्रद्धा रखना विनय ता है। (३) बैयावृति तप: ..."आचार्योपाध्यायतपस्विीक्ष्यग्लान गानसद्ध साधुमनो

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