Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद
ज्ञानाम् ।।२४।।" अर्थात् १. प्राचार्य २. उपाध्याय, ३. तपस्वी ४. शैक्ष ५. ग्लान, ६, गए ७. कुल, ८. सङ्घ, ६. साधु, और १०. मनोज्ञ ये १० प्रकार के साधु हैं इनकी यथावसर, यथायोग्य सेवा सुथुषा परिचर्या करना वैयावृत्ति तप है।
(१) पाँच प्रकार प्राचारों का जो स्वयं आचरण करें और शिष्यों को भी करावे तथा शिक्षा दीक्षा देकर शिष्यों का अनुग्रह, निग्रह करें वे प्राचार्य कहलाते हैं ।
(२) जिनके सान्निध्य में साधुगण प्रागम का अध्ययन करते है वे उपाध्याय हैं।
(३) जो मासोपवास, पक्षोपवास, अष्टोपवास, तेला वेला, षष्ठोपवासादि करने में संलग्न रहते हैं वे तपस्वी कहलाते हैं ।
(४) जो निरन्तर धत की आराधना में तत्पर रहते हैं सतत बतभाबना निपुण होते हैं अर्थात् आत्मज्ञान की वृद्धि में सदा तत्पर रहें वे शैक्ष्य कहलाते हैं ।
(५) असाता कर्मोदय से जो प्रायः ऋग्न-रोगी रहते हैं पर प्रात्मबल से युक्त हों वे ग्लान कहलाते हैं 1
(६) गण-स्थविरों की संतति को गण कहते हैं ।
(७) कुल--दीक्षा देने वाले प्राचार्य की शिष्यपरम्परा के साधु समूह 'कुल' कहलाते हैं।
(८) सङ्घ--यति, मुनि, ऋषि और अनगार इन चारों प्रकार के साधुनों के समूह को सङ्घ कहते हैं।
(६) साधु-बहुत समय के दीक्षित साधु कहलाते हैं । (१०) मनोज्ञ--सुन्दर रूपलावण्य सहित-सर्वप्रिय सन्त मनोज्ञ कहलाते हैं।
इस प्रकार इन दस प्रकार के साधुओं का रोगादि, जीत जाणादि परीषह आदि आने पर यथायोग्य सेवादि करना वैयावृत्ति तप है। अन्तरङ्गभक्ति, त्याग भावना होने पर ही यह तप होना संभव है । अत: यह भी अन्तरङ्ग तप है।
(४) स्वाध्याग-पाँच प्रकार का स्वाध्याय करना--१. वाचना २. पृच्छना ३. अनुप्रेक्षा ४. पाम्नाय ५. धर्मोपदेश ये स्वाध्याय के पाँच भेद हैं । इनका निरन्तर अभ्यास करना स्वाध्यायतप है।
(५) व्युत्सर्ग-शरीर से ममत्व त्यागना ध्युत्सर्गतप है।
(६) ध्यान-- आस्मस्वरूप का एकाग्रचित्त से चिन्तन करना ध्यान है। अर्थात एकाग्रचिन्तानिरोध ध्यान कहलाता है। ये छहों तप अन्तरङ्ग हैं। ये तप कर्म निर्जरा के हेतू
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