Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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थोपाल चरित्र दसम् परिच्छेद]
[११७ भक्ति और प्रीति से उसकी आज्ञा को शेषावत् मस्तक पर धारण करते हैं । कारण कि वे धर्म प्रेम की डोर से बंधे थे । श्रीपाल का शासन प्रातङ्क रहित था । किसी को भी प्राधि-व्याधि. दैहिक ताप-सन्ताप नहीं था । वह स्वयं धर्मानुरागी था इसलिए प्रजा भी धर्मानुगामिनी थी। उसकी सेना में विशाल उन्नतकाय मदोन्मत्त बारह हजार गज (हाथी) थे । नाना प्रकार की उत्तमोत्तम वस्तुओं से भरपूर मनोरथपूर्ण करने वाले बड़े-बड़े उतने ही रथ थे । उनकी शोभा देखते ही बनती थी। क्षुद्र घण्टियों का रव मन को मुग्ध कर लेता था । अनेकों विभिन्न देशों में उत्पन्न पञ्चवर्णनीय सुन्दर तीव्रगतिबाले, चञ्चल, हींसते हुए बारह लक्ष उम महीपति के घोड़े थे । सुन्दर, सुडौल, युद्धकला में प्रवीण नाना क्रीडाओं में निपुण ये अब अत्ति मनोहर और आकर्षक थे । जिनके नाम श्रवण मात्र से शत्रु दल कांप उठे, ऐसे यमराज के समान पराक्रमी थे। विजयपताका फहराने वाले महापराक्रमी, शत्रुओं के लिए महा ऋर और भयङ्कर संहारक बारह करोड़ उत्तमोत्तम सुभट थे । हजारों देश इसके प्राधीन थे । एक-एक देश के करोड़ोंकरोड़ों ग्राम.शे । ये सभी गारनूल - पाटि पता ने भरपूर थे । कुवेर का खजाना ही मानों भूतल पर आ गया है । बाजारों, सड़कों दूकानों में हीरा, माणिक, पन्ना, मोती, सुवरण, लाल, मणियों के ढेर के ढेर लगे रहते मानों सागर ने ही उसके पुण्य से अपना सारा वैभव उसके चरणों में अर्पण कर दिया है। सर्वत्र सख-शान्ति और निर्भयता की त्रिवेणी बहती थी। किसी को भी किसी प्रकार का प्रभाव नहीं था। याचक संज्ञा ही मानों वहां नहीं थी। दाताओं का ही तांता था । द दा ही सुनाई पड़ता ल ला का कोई नाम लेने वाला नहीं था। इस प्रकार अपूर्व वैभव, अपार जन समूह पाकर बह श्रीपाल कोटिभट पूर्ण निष्कण्टक राजशासन करता अमनन से प्रजा का पालन करता था । प्रजा के लिए वह राजा ही नहीं था, अपितु पिता, बन्धु, स्वामी, ईश्वर और गुरु भी था । वह सबका श्रद्धा और प्रेम का पात्र था । उसका अन्तः पुर अलकापुरी को मात करता था । रानियाँ एक-से-एक मुन्दर, गुणवती, पतिभक्ता, स्नेहालु और धर्मज्ञा थीं। उनके साथ नाना प्रकार के मनोवाञ्छित भोगों को चक्रवती समान भोगता था। परन्तु काम पुरुषार्थ की सिद्धि धर्मपुरुषार्थ की सिद्धिपूर्वक ही करता था । श्रीमज्जिनेन्द्रचन्द्र भगवान ने दान देने के लिए सप्तक्षेत्रों का उल्लेख किया है (इनका विवरण पहले प्रा चुका है) वह धर्मनोतिज अपने सम्यक् बानरूप मेघामृत से इनका निरन्तर सिञ्चन करता रहता था । आर्ष परम्परानुसार समस्त लौकिक क्रियाओं का सम्पादन करता था । फलत: उसकी प्रजा के लोक-आबाल वृद्ध सभी नर-नारी तदनुसार उसका अनुकरण करते थे। क्योंकि नीति है
राज्ञि मिणि मिष्ठा: पापे पापा: समे समाः ।
लोकास्तनुवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजा. ।।
अर्थात् राजा के धर्मात्मा होने पर प्रजा भी धर्मपरायण होती है, पापी राजा को प्रजा भी अन्यायी पापात्मा हो जाती है । समानरूप-पाप पुण्य दोनों रूप प्रवर्तन करने वाले राजा की प्रजा भी उसी समान होती है क्योंकि लोक अनुकरणशील होते हैं । जैसा राजा वैसी प्रजा यह सर्व साधारण नियम है । तद्नुसार श्रीपाल का राज्य था ।।२२ से ३१।।