Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 557
________________ ५२०] [ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद पर्वक राज्य करता रहा। तीव्र पुण्योदय से मखमग्न उसका समय लीलामात्र में गुर गुजर गया। कितना समय व्यतीत हो गया यह विचार ही नहीं पाया । एक दिन वह वन विहार को गये। वहाँ क्या देखा ? एक सुन्दर विशाल सरोवर के किनारे एक महा विशालकाय हाथी पडू में फसा और मर गया । अचानक इस घटना को देखकर महाराज श्रीपाल का हृदय भयभीत हो गया। संसार की क्षणभंगुरता उनके समक्ष साकार हो उठो । वह अपने मन में चिन्तवन करने लगे, "अहो यह महाशक्तिशाली गजराज जिस प्रकार भीषण पंक में फंस कर यमराज का ग्रास बन गया, उसी प्रकार संसार मूर प्राणी कामज्वर की दाह से सन्तप्त हो स्त्रियों के अशुभ रूप शारीर रूपी कीचड में फंसकर जीवन को खो देते हैं। मोहरूपी कर्दम में निमग्न प्रज्ञानी जन 'मेरा मेरा' का राग अलापते हुए यमराज के शिकार हो जाते हैं । यह यम महा निर्दय है । कामज्वर सन्तप्त जन उस ज्वाला की शान्ति के लिए नारोशरीर कर्दम में प्रविष्ट होते हैं और यह घातक यम अपना दाब पूरा कर लेता है अर्थात् ये सब उसके यहाँ जायगे मैं अब ऐसा उपाय करू कि इस सर्वभक्षी यम को ही समाप्त कर दूं। "अभिप्राय यह है कि श्रीपाल को वैराग्य जाग्रत हुआ और उसने यह मृत्यु ही मारने योग्य इसे ही मारना चाहिए ऐमा निर्णय किया। मरण ही जीवग का और जीवन-जन्म ही मृत्यु का कारण है । मृत्यु की मृत्यु करने से जन्म का नाश स्वाभाविक है। इसलिए धर्मात्मा सत्पुरुषों को मृत्यु पर विजय करना चाहिए ॥३२ से ३६।। यह मृत्यु-यम वलात् जीवों को ले जाता है इसी को परास्त करनाशाश्वत सुख का उपाय है। उसके लिए-- रत्नत्रयेषु सन्धानैस्तपश्चापाङ्कित बधः । निर्वाणद्वीप सम्प्राप्त्य झारोहन्तु शिवार्थिनः ॥४०॥ अस्मिन् अनादि संसारे धन्यास्ते पुरुषोत्तमाः । | मोह शत्रु विनिजित्य ये प्रापुः परमं पदम् ।।४१।। अध्र व रश्यते सर्व यत्किञ्चित् परमार्थतः । धन धान्यं सुवर्ण च मणि मुक्ताफलादिकम् ॥४२।। अन्वयार्थ - (शिवाथिनः) मुक्ति मौध के चाहने वाले (बुधः) भव्यज्ञानी जनों द्वारा (रत्नत्रये) रलत्रय में (तपश्चापाङ्कित:) तपश्चरण रूप धनुष से अङ्कित (सन्धानः) वाणों से (हि निश्चय से (अारोहन्तु) पारोहण करें (अस्मिन् ) इस (अनादिसंसारे) अनादि संसार में (ते) a (परुषोत्तमाः) उत्तम पूरुष धन्य हैं (ये) जिन्होंने (मोहशत्र) मोहरूप अरिको (विनिजित्य) जोतकर (परमम् ) उत्तम (पदम ) पद मोक्ष को (प्रापु:) प्राप्त कर लिया, (अत्र) यहाँ संसार में (धनम ) गौ, अश्व गजादि (धान्यम ) गेहूं, जौ मूग मटरादि (सुबर्गम ) रुपया, गिन्नी साना चाँदो प्रभृति (मणिमुक्ताफलादि) मणि, मोती आदि (यत् किचित्) जो कुछ है (परमार्थतः) निश्चयनय से (सर्वम्) वह सब (अध्र वम् ) नश्वर (दृश्यते) दृष्टिगत होता है । भावार्ग---श्रीपालमहाराज संसार की नश्वरता का चिन्तबन करते हैं कि यह असार

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