Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 559
________________ श्रीपाल चरित्र दसम् परिच्छेद ] ( ५२३ कहना ? ( सज्जने विद्यमाने ) बड़े-बड़े सत्पुरुषों के विद्यमान रहने पर भी ( घोरे ) भयङ्कर ( मरगो) मरण के ( सम्प्राप्ते ) उपस्थित होने पर (कर्म) कर्म राजा ( चुम्बकम् ) चुम्बक (वा) जिस प्रकार ( लोहम ) लोह को खींचता है उसी प्रकार ( जीवम ) जीव प्राणी को ( fear ) लेकर ( प्रयान्ति) चले जाते है (असम) इससे अधिक क्या ? ( कानने) वन में ( सिंहस्य ) शेर के ( अ ) आगे ( पतितः ) गिरे हुए ( मृगस्य ) हरिण का ( इव) जिस प्रकार कोई (अपि) भी ( शरणम् ) बचाने वाला ( नास्ति) नहीं है तथा ( संसरताम ) जन्म मरण करते संसारी जीवों का ( संसृतौ ) संसार में (परम ) दूसरा कोई भी ( शरणम् ) शरण- रक्षक ( नास्ति) नहीं है (दुधोत्तः ) भेद विज्ञानियों के द्वारा (भुवनत्रये) तीनों लोकों में ( जन्तोः) प्राणो का ( केवलम् ) एकमात्र ( पवित्रम) निर्मल ( दर्शनज्ञानवारित्रम् ) सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र ही ( शरणम ) रक्षकशरणभूत (मान्यम ) माना गया है (अन्य ) अन्य कोई ( न ) नहीं है। भावार्थ - यहाँ विरक्त श्रीपाल भूपेन्द्र संसार में कोई शरण नहीं है। मरण से कोई नहीं बचा सकता, इस प्रकार प्रशारण भावना का चिन्तवन कर रहे हैं। ये महान वैभवशाली इन्द्र अनेकों विभूतियों का अधिपति धरणेन्द्र, सुर-असुर, पटवण्डाधिपति चक्रवर्ती क्या किसी को मरण से बचा कर रख सकते हैं ? ओह स्वयं ही ये बेचारे कर्माधीन हैं, आयुष्य पूर्ण होते ही उस यमराज के ही चङ्गल में फंसने वाले हैं, फिर अन्य की तो बात ही क्या ? जो स्वयं श्ररक्षित है वह दूसरे का प्रतिपालक भला कैसे हो सकता है ? इस दुःख सागर संसार में जीव का कोई शरण नहीं हैं । जिस प्रकार भीषण सघन - गहन- निर्जन वन में सिंह के आगे पड़े हरिण को बचाने में कोई समर्थ नहीं होता उसी प्रकार मृत्यु के सर्वभक्षी विशाल फटे मुख में प्राये प्राणियों को संसार में कोई भी बचाने वाला नहीं है । मरण समय श्राने पर कितने ही मरिणमन्त्र तन्त्र रहें, वैद्य, डाक्टर, सर्जन, सज्जनन्दु नि, शत्रु-मित्र, प्रियबन्धुवान्धवों का समूह क्यों न इकट्ठा हो, परन्तु सबके देखते-देखते कर्मराज प्राणियों को उसी प्रकार खींच ले जाता है, जिस प्रकार चुम्बक लोहे को बरबस खींच लेता है। मरण से बचाने वाला इस संसार में गति से गत्यन्तर जाते हुए भ्रमण करते हुए जीवों को कोई शरणदाता नहीं है । कारण कि संसारी समस्त जीव स्वयं शरणागत हैं शरण्य कौन किसका हो ? आगे श्रीपाल निर्णयात्मक दृष्टिकोण उपस्थित करते हैं कि तीनों लोकों (ऊर्ध्व मध्य और प्रधोलोक ) में यदि कोई शरण हैं तो रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और मम्यक् चारित्र ही है । यही आत्मा का स्वरूप । यही धर्म है। इसी को भेदविज्ञानियों ने मोक्ष मार्ग कहा है। इसके अतिरिक्त कोई भी मृत्यु से बचाने वाला नहीं है । यह आत्मा का स्वरूप ही ध्यातव्य है अब मैं इसी की शरण लूँगा । आत्मा हो आत्मा का प्रतिपालक - रक्षक है, किन्तु इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए वीतरागी गुरु ही सच्चे मार्गदर्शक हैं, वे स्वयं इस विकराल अजेय मृत्यु पर विजय पाने को बद्धकच्छ हैं और अन्य भव्या ओं को भी समर्थ बनाने में सफल समर्थ निमित्त कारण हैं अतः उन्हीं की शरण में जाना चाहिए । यही सनातन समीचीन मार्ग है --- ||४६ से ४६ ।। अब तीसरी संसार भावना का ध्यान करते हुए श्रीपाल नरेश - इस संसार का नक्शा उतारते हैं । यह संसार सर्वत्र असहनीय यातनाओं में खचाखच भरा हुआ है । तिलःतुष मात्र भी इसमें शान्ति का स्थान नहीं-

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