Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र नवम परिच्छेद]
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राज कहते हैं हे भूपेन्द्र ! पूर्वभव में तुमने इस सिद्धचक्रवत, पूजन और आराधना से बहुत से पाप को नष्ट कर दिया था। प्रभूत अधसमूह को भस्म कर दिया था तो भी कुछ छाई समान उसकी गन्ध शेष रह गई । ठोक ही है किरमिच का रङ्ग बार-बार धोने पर भी उसकी हल्की सी लाली रह ही जाती है। आपका प्रभूत पाप जिनसिद्ध भक्ति पूजा से प्रक्षालित कर दिया गया तो भी धुधला सा प्राकार मात्र तो रह ही गया । सुनिये, आपने श्रीकान्त राजा नामक पर्याय पूर्वभव में श्रावक के पवित्र व्रत धारण किये तत्फलस्वरूप आपको अतिलघुबय में पिता का राज्य प्राप्त हुआ । पुन: तुमने उन परम पावन श्रावक व्रतों को छोड़ दिया, जिसके दुर्विपाक से आपको राज्यभ्रष्ट होना पड़ा। आपने मनिराज को अपने साथियों के साथ कृष्ठी कहा था। उसी पाप से आप और आपके साथी कष्ठो हए, क्योंकि आपने वीतरागी मुनिराज मोकोली कहा पोरइन लोगों ने भी अपनी बात का समर्थन किया था। यद्यपि करुणासिन्धु, दयानिधान श्रीवरदत्तमुनिराज ने आपको प्रायश्चित्त किया था और घोर नरक-तिगोद के कारणभूत भयङ्कर पापों को लघु बना दिया था इसलिए ही तुम अतिसुन्दर रूपवान हुए हो क्योंकि “पश्चात्तापात्फलच्युतिः" पश्चात्ताप करने से पापकर्म के फल की हानि हो जाती है । आपने, भो राजन् मुनीश्वर को सरोवर में फेका तत्फल स्वरूप प्राप अथाह सागर में गिराये गये । उन निर्पराध मुनिराज को पुन: जल से निकाल लिया था इसी से प्राप सागर को भुजाओं से पार कर तीर पर आ लगे। मुनिनायक को तुमने चाण्डाल भाण्ड कहा इसी से चाण्डालों द्वारा प्राप भी चाण्डाल या भाण्ड घोषित किये गये । भो राजन् ! यह जीव जैसा-जैसा, जब जब कर्म करता है उसका फल भी उसे ही तदनुसार भोगना पडता है । संसार में मुनि भक्ति से बढकर पुण्यकर्म और मुनिनिन्दा से अधिक अन्य कोई भी पाप कर्म नहीं है । भव्यों को भूलकर भी स्वप्न में भी गुरु निन्दा व मुनिजनों का अपमानादि नहीं करना चाहिए ।।१३८ से १४४॥ प्राचार्य कहते हैं मुनिनिन्दा और प्रतभङ्ग करना महा भयङ्कर पाप है
धरं हालाहलं भुक्तं वरं प्रारण विसर्जनम् । प्रसि धेनुकया राजन् अग्निपातोऽपि सुन्दरः ॥१४५।। सिंहव्याघ्रादिभिरेषो, वर तु पातनं जले। नैव निन्दा मुनीन्द्राणां शील संयम शालिनाम् ॥१४६।। हालाहलादिकं दुःखं क्षरणं प्रारपधिसर्जने । मुनीनां निन्दनं दुखं करोत्यत्र भवे भवे ॥१४७॥ तस्माद्धो भव्य राजेन्द्र श्रीपाल सुगुरणोज्वल । प्राण त्यागेऽपि कर्तव्या नैव निन्दा तपस्विनाम् ॥१४॥
अन्वयार्थ- हालाहलम्) सद्यप्राणनाशक विष (भुक्तम् ) खाना (वरम् ) अच्छा है (प्राणविसर्जनम् ) प्राण त्याग (वरम् ) अच्छा (राजन्) हे नृप ! (प्रसिधेनुकथा) गाय के